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सोमवार, 29 अगस्त 2016

दशरथ माझी से दाना माझी तक! (कविता)

             दशरथ माझी से दाना माझी तक! (कविता)

माझी वह भी था माझी तुम भी हो
वह दशरथ था तुम दाना हो
उसने पहाड पार किया था
पत्नी को बचा लेने की आस में
तुम  कंधों पर जीवंसंगिनी
और साथ में बेटी को ले
पैदल निकल पडे
चौंसठ किलोमीटर रास्ता तय करने

अमंगदेई को  सती के समान
कंधों पर
शिववत लिए हुए
तुममें नहीं था
कोई रोष
कोई प्रतिकार की भावना नहीं
पत्नी वियोगी शिव ने तो दक्ष के यज्ञ
का कर दिया था विध्वंस

पत्नी को
अंतिम यात्रा कराते हुए
शीघ्र घर पहुँचने के लिए
थी उत्कंठा
ताकि अमंगदेई की ठंडी देह
प्रकृति को समर्पित कर सको
प्यार और सम्मान के साथ
अपने सामाजिक संस्कारों के साथ

पर तुम्हारे
ये ऐकांतिक क्षण
तुम्हारे न रह सके
उन्होंने झकझोर दिया है
उस समाज को
जो गरीबी
और भुखमरी देखकर
विचलित नहीं होता

अब नेता और पत्रकार
आते रहेंगे
तुम्हारे द्वार
आर्थिक सहायता की
होती रहेगी घोषणा
अमानवीय
कौन-कौन है
इसकी होगी गवेषणा

पर दाना
इस भुलभुलैया में तुम
अपना दानापन नहीं खोना
तुम दशरथ बनना
नया रास्ता बनाने का
हौसला रखना
अपनी दृढता, खुद्दारी
और हिम्मत नहीं खोना

सरलता तुम्हारे जैसे सीधे-सादे
आदिवासी की पूँजी हैं
इस सरलता में
वह शक्ति है
जो गहलौर से वजीरगंज पहुँचना
सहज बना देती है
पहाड को काट कर
रास्ता बना देती है


तुम्हारे सदृश दशरथ और दाना
इस देश के तमाम कोनों में
बिखरे हुए हैं
पर आँखें रहते न देखने का अभ्यस्त
यह समाज उन्हें कभी नहीं देखता
यह तभी देखता है
जब किरकिरी सा आँखों में गड
कोई मन को झंझोडता है

तुम्हें शवसंगी पथिक रूप में देखकर
दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र
लोककल्याणकारी राज्य
समाजवादी गणतंत्र
उन्नतशील राष्ट्र
सातवाँ बडा धनिक देश
सब झूठा लगता है
दंभ भरा ढकोसला लगता है
      - संजय त्रिपाठी












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