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रविवार, 15 नवंबर 2015

राष्ट्रहित और धार्मिक हीनभावनाएं (टीपू सुल्तान के प्रसंग में विमर्श)

पुष्यमित्र उपाध्याय-
          वैसे मेरे विचार में जब देश की सबसे बड़ी समस्या वर्ग संघर्ष के इतिहास के कारण ही उपस्थित है, तो इन इतिहासों पर चर्चा जरुरी है, और निश्चित ही ये केंद्र होने भी चाहिए | टीपू जरूर रहे होंगे देश भक्त और समाज को जोड़ने वाले , लेकिन कब? जब अंग्रेज छाती पर चढ़ आये तब ? जब सत्ता छिनती दिखी तब जागा एकता का भाव? उससे पहले तो काटम काट ही मचाये हुए थे इनके पूर्वज और ये | वर्तमान केवल उन लोगों की जयंती मनाता है जो निर्विवाद रूप से नायक रहे थे, जिन्होंने किसी भी अन्य वर्ग का दमन कर अपना सिक्का नहीं चमकाया | वैसे अंग्रजो का आना भी इस देश की मूल सभ्यता के लिए जरुरी था वरना मैं आज परवेज होता और आप शाहबाज़ , हाँ जो अत्याचार और लूट पाट हुई बस वो नहीं होना था।

कमलाकान्त त्रिपाठी-
          मराठों का इतिहास क्यों भूलते हैं? राघोबा की फ़ितरत से अंग्रेज़ों के सामने मुंह की खा गए. वरना मुग़ल सल्तनत के उत्तराधिकारी होने से कोई अन्य शक्ति रोक नहीं सकती थी. 1761 के बावजूद.

पुष्यमित्र उपाध्याय-
          सर ऐसे किन्तु परन्तु तो काफी सारे हैं, अगर गद्दारी न होती , एकता होती तो हम गुलाम ही कहाँ बनते?

मेरी प्रतिक्रिया-
          पुष्यमित्र उपाध्याय जी, पहले तो हिन्दू धर्म को इतना कमजोर मत समझिए कि आप परवेज होते और मैं शहबाज होता। हिन्दू धर्म की पाचक क्षमता, मौके के अनुकूल खुद को ढाल लेने और पैसिव प्रतिरोध की शक्ति, लचीलापन और समुत्थान शक्ति जबर्दस्त हैं। इस्लाम के आगमन के पहले भारत में जो भी आए उन्हें हिन्दू धर्म पचा गया। शक, कुषाण और हूण कहाँ हैं पता नहीं चलता। केरल में जहाँ यहूदी और ईसाई धर्म इस्लाम से भी पुराने हैं वहाँ एक मलयाली हिन्दू, ईसाई और यहूदी में आप आसानी से भेद नहीं कर करते। महाराष्ट्र में मैं लंबे अरसे तक रहा हूँ। वहाँ भी ऐसा ही है। कुछ लोगों को मैं नाम से महाराष्ट्रियन हिन्दू समझता था । बाद में मुझे पता चला कि वे लोग यहूदी यानी कि Jew हैं। 
          इस्लाम पहला ऐसा संगठित धर्म था जिसने हिन्दू धर्म के सामने चुनौती प्रस्तुत की। भारत में आए इस्लाम के अनुयाई बेहतर तकनीक और युद्धनीति के जानकार थे और इसके बल पर अपना सत्ता विस्तार करते गए। तथापि इस्लाम की शरण लेने वाले भारतवासियों में एक बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो सत्ता से जुड़े रहना या उसके निकट रहना चाहते थे अन्य बड़ी संख्या उन लोगों की थी जो गरीबी और जहालत में थे और जिन्हें लगा कि इस्लाम की शरण लेने से उन्हें राहत मिलेगी। जबरन धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बनाए जाने की घटनाएँ अपेक्षाकृत कम हुई हैं और यदि औरंगजेब के उत्तरवर्ती शासनकाल या काश्मीर में जबरन परिवर्तन को छोड़ दिया जाए तो ऐसा प्राय: युद्ध आदि के दौरान या फिर राजनीतिक विरोध होने पर ही होता था। भारतवर्ष के उन मुस्लिम शासकों में से भी जिन्होंने जजिया कर लगाया, अधिकांश ने ब्राह्मणों को इससे मुक्त रखा। यह इस बात का परिचायक है कि उनमें हिन्दू धर्म के लिए कहीं कुछ tolerance था। एक मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकार ने इस्लामी कानून और शासन व्यवस्था के संदर्भ में लिखा है कि भारतवर्ष में मुस्लिम दाल में नमक के बराबर हैं इसलिए उन व्यवस्थाओं को यहाँ लागू करना संभव नहीं है। भारतवर्ष में मुस्लिम जनसंख्या अधिकतम 15 % के आस-पास ही रही। 
         इस प्रकार भारतवर्ष ने अरब से उठी इस्लाम की आँधी को झेल लिया पर इस्लाम को स्थान देने के बाद भी अपने पुराने धर्मों, संप्रदायों को तो बचाए रखा ही, पूरे दक्षिण पूर्व एशिया को भी सुरक्षित रखा। कमलाकान्त त्रिपाठी जी की इस बात से सहमत हूँ कि अँगरेजों के आगमन के समय मराठा शक्ति मुगलों सहित अन्य सभी स्थानीय शक्तियों पर भारी थी। पर अपने आगमन के साथ ब्रिटिश ने उनका भी भाग्य निर्धारण कर दिया । इतिहास हमेशा if एवं but के लिए स्थान छोड़ देता है।
        जो कुछ भी हो इतिहास का वह युग बीत चुका है और भारतवर्ष की यदि उन्नति करनी है तो हम सबको मिल- जुल कर रहना पड़ेगा। जख्मों को बार-बार कुरेदना,याद करते रहना और यह भाव रखना कि कोई उन्हें सहलाए हीनभावना का परिचायक मात्र है और इस प्रकार की हीनभावना का हमें राष्ट्रहित में परित्याग करना चाहिए। इतिहास विषयक चर्चा- परिचर्चा और संवाद में कोई हर्ज नहीं है पर यह हमारी जानकारी,कुछ सीखने और बेहतरी के लिए होना चाहिए न कि वह हमारे ऊपर इतना हावी हो जाए कि हमारे वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करने लगे।

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