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सोमवार, 29 जून 2015

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस ( मेघ-गीत)



बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
जीवन बंजर तुझ बिन, तू बरसे तो रस
ताप से कुम्हलाए मनुज और प्रकृति
तू आया सब खिल कर रहे विहँस ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
आसरहित हो तेरे बिन सब थे रहे तरस
व्यथित मन तापित हो लगा लगने विरही
तू बरसा तो रूक्ष जीवन बना सरस ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
धरती पे हरीतिमा फिर से गई परस
तुझे पा हुई निहाल शुष्क पडी वसुधा
कृषक हुए मुदित कांधे पे लिए करष ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
देख आहलादित मयूर नाच उठे बरबस
तू बरसाता बूँदे जिनमें है भरा अमिय
समस्त सृष्टि को देता भर जीवनरस ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
शहरी मेम भीजें, कोसें ले स्वर कर्कश
शहरी बाबू बेचैन हो खोजें छायास्थल
पर गाँव की गोरी तुझे देख रही हरष ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
गंगा पे धार तेरी जब पडी प्रखर
नौका रह गई घाट पर बँधी की बँधी
राजा न आया, बनारस में बना रस ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
हौले- हौले से बरसा बूँदें छप्पर पर
झींगुरों से हो गई गुंजारित निशा
परदेशी हित कोई करवट ले रहा सिहर ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
घूँघट के सायों से फूट रही है बतरस
ताल से दादुर रहे पुकार प्रिया को
दे उल्लास, न रख कहीं कोई कोरकसर ॥

बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
बता तेरे कलश में है कितना मधुरस
अभी रुक,मत जा छोडकर ठाँव मेरा
तू लेकर आया है जीवन में नवरस ॥

बरस-बरसबरस रे मेघा तू खूब बरस॥
       - संजय त्रिपाठी










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