hamarivani.com

www.hamarivani.com

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

फिल्मों का प्राइमटाइम शो और भाषाविशेष (आलेख)

          मुंबई भारत का शायद पहला और आज भी सबसे ज्यादा कास्मोपोलिटन शहर है। भले ही यहाँ मुंबइया हिंदी बोली जाती हो जिसे हिंदी वाले हिंदी का विकृत रूप मानते हों पर आपसी संवाद के लिए लंबे समय से मराठी से ज्यादा यही मुंबईवासियों के द्वारा प्रयोग में लाई जा रही है। जब आप इस मुंबइया हिंदी को सुनने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो आपको इस भाषा में विकृति नहीं दिखाई देती बल्कि उसमें निहित प्रेम दृष्टिगोचर होने लगता है। सन 1991 के चुनावों के दौरान शरद पवार जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए वोट मांगने गए तो अपने भाषणों के दौरान उन्होंने कहा कि मैं देश के सबसे बडे हिन्दीभाषी नगर मुंबई से आपके बीच आया हूँ। पर हाल ही में  इस नगर सहित पूरे महाराष्ट्र में सिनेमाहालों के लिए अपने रोज के शो का प्राइम टाइम मराठी फिल्मों के लिए रिजर्व रखना अनिवार्य कर दिया गया है जबकि मुंबई में ही देश की सबसे ज्यादा हिन्दी फिल्में बनती हैं और देखी भी जाती हैं। सिनेमाहालों के सामने पहले से ही अस्तित्व का संकट चल रहा है क्योंकि अब लोगों के पास अपने घर में ही मनचाही फिल्म देखने के साथ - साथ साथ  मनोरंजन के अन्य तमाम विकल्प मौजूद हैं। इसलिए वे फिल्में देखने तभी जाते हैं जब उन्हें लगता है कि उन्हें यह फिल्म देखनी ही चाहिए और वह भी सिनेमाहाल में। ऐसी स्थिति में यदि सिनेमा मालिकों को मजबूरी में कोई मराठी फिल्म उसके लिए दर्शक उपलब्ध न होने पर भी दिखानी पडेगी तो यह व्यावसायिक दृष्टि से कितना मुफीद और सफल होगा यह समझने वाली बात है।

          तथ्य यह है कि मुंबई के सिनेमाहालों में सिर्फ हिन्दी और मराठी ही नहीं बल्कि तमिल,तेलुगु, मलयालम और भोजपुरी सहित अन्य तमाम भारतीय भाषाओं की फिल्में भी दिखाई जाती हैं बशर्ते कि उनके लिए दर्शक उपलब्ध होने की संभावना हो। सन 19 92-93 में अंबरनाथ ( वृहत्तर मुंबई का एक उपनगर) में अपनी तैनाती के दौरान मैं रविवार के दिन सायं एक सिनेमाहाल में ,जहाँ प्राय: पुरानी क्लासिकल फिल्में लगा करती थीं, फिल्म देखने चला जाया करता था। एक दिन रविवार की शाम को मैं यह सुनकर कि वहाँ "नदिया के पार" फिल्म लगी हुई है जब फिल्म देखने के इरादे से गया और टिकट खिडकी पर जाकर बुकिंग क्लर्क से टिकट देने के लिए कहा तो उसने मुझसे कहा -मद्रासी है। मैंने समझा कि वह मुंबइया हिंदी में मुझसे पूछ रहा है कि क्या मैं मद्रासी हूँ। मैंने कहा- नहीं, पर टिकट दो ।वह दोबारा बोला- मद्रासी है। मैंने कहा- मैं कौन हूँ ,इससे तुम्हें क्या,तुम मुझे टिकट दो। इस पर वह बोला -मद्रासी पिक्चर  देखना है क्या, पिक्चर मद्रासी है। इस पर मैंने उसे धन्यवाद देते हुए कहा कि नहीं,फिर मुझे फिल्म नहीं देखनी है क्योंकि मैं तमिल नहीं समझता हूँ। इसी प्रकार वहाँ प्रत्येक रविवार प्रातः भोजपुरी फिल्म का शो लगा करता था ।  मुझे पता लगा कि मेरे विभाग के एक तेलुगूभाषी श्री राव नियमित रूप से भोजपुरी फिल्म देखने जाते हैं । मैंने एक दिन उनसे कहा - राव बाबू ,सुना है आप भोजपुरी पिक्चर देखने जाते हो जबकि हिन्दी भी ठीक से नहीं बोल पाते हो। इस पर राव बाबू ने मुझे बताया कि उन्हें भोजपुरी फिल्मों का संगीत -नृत्य विशेषकर पसंद है इसी कारण वे भोजपुरी फिल्में देखते हैं। एक दिन मैंने राव बाबू से कहा - राव बाबू एक अच्छी फिल्म दामिनी लगी हुई है। राव बाबू और मेरे एक अधीनस्थ श्री शिंदे ने कहा कि वे लोग भी मेरे साथ फिल्म देखने चलेंगे। थोडी ही देर में खबर फैल गई और बगल के अनुभाग से श्री पिल्लै और श्री सिंह आकर बोले कि वे भी फिल्म देखने चलेंगे। राव बाबू और श्री  शिंदे बोले कि वे लोग छुट्टी होने के बाद सीधे सिनेमाहाल जाएंगे क्योंकि घर जाने के बाद उनकी पत्नियाँ उन्हें आने नहीं देंगी। हम सब लोगों ने राव से कहा कि फिर वे हम सबका भी टिकट ले लेंगे।अब राव ने दूसरी समस्या बताई और कहा कि वे ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते इसलिए पंद्रह मिनट इंतजार कर सिनेमाहाल के भीतर चले जाएंगे। खैैर मैं,पिल्लै और सिंह घर जाकर और नहा-धो कर बारी-बारी से सिनेमाहाल पहुँचे। तब तक राव बाबू हाल के अंदर जा चुके थे। हम तीनों ही गेटकीपर को राव बाबू का हुलिया आदि बताकर किसी तरह उसे राजी कर हाल के अंदर गए। सबसे आखिर में जब पिल्लै आए तो उनसे गेटकीपर बोला- ये क्या है आज जो भी आदमी आ रहा है यही बोल रहा है कि लंबा-टकला आदमी पाँच टिकट कटाकर अंदर गया है। खैर , अब प्राइम टाइम शो मराठी फिल्मों के लिए रिजर्व हो जाने के बाद इस तरह विभिन्न भाषाओं को बोलने वालों का एक साथ मिलकर कार्यक्रम बनाना और इस तरह के मनोरंजक अनुभव शायद अतीत की बात हो जाएगी।

          महाराष्ट्र सरकार को मराठी भाषा,साहित्य और संस्कृति को निश्चय ही बढावा देना चाहिए पर जहाँ लोगों के व्यावसायिक हित संलग्न हैं वहाँ उनका ख्याल करके इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। ऐसा कोई भी प्रयास जो व्यावसायिक हितों की उपेक्षा कर जबरन थोपा जाएगा वह अंततोगत्वा असफल सिद्ध होगा क्योंकि कोई भी व्यवसायी बिना लाभ के अथवा घाटा उठाकर व्यवसाय नहीं करेगा।भाजपा की प्रांतीय सरकारों को  भावनात्मक मुद्दों को प्रशासन का केन्द्रबिन्दु बनाने के बजाए विकास का ही मंत्र पकडकर चलना चलना चाहिए । जनता की मूलभूत समस्याओं की उपेक्षाकर और भावनात्मक मुद्दों की राजनीति कर कोई भी प्रशासनिक व्यवस्था सफल नहीं हो सकती और उसके अपने रास्ते से भटक जाने की पूरी संभावना है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें