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मंगलवार, 18 नवंबर 2014

बिन अंग्रेजी सब सून का भ्रम !

          राहुल भैया ने 13 नवंबर के दिन पंडित नेहरू के 125वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में कांग्रेस की तरफ से आयोजित समारोह में अपने एक वक्तव्य में बडे रोष के साथ कहा कि मोदी अंग्रेजी को हटा रहे हैं.राहुल भैया के अनुसार भारत की सारी प्रगति अंग्रेजी के कारण हुई है .इसी कारण देश में ज्ञान-विज्ञान की तरक्की हुई और हमारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर और इंजीनियर विदेशों में गए तथा वहाँ नाम कमाया.राहुल भैया के अनुसार इस बात का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं जिसके कारण यह सब प्रगति संभव हुई.

          राहुल भैया से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि मोदी ने कौन सा ऐसा वक्तव्य दिया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है अथवा उनकी सरकार ने कौन सा ऐसा आदेश जारी किया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है या उसके प्रयोग में कमी लाने की बात कही गई है.यह जरूर है कि मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर और विदेशी सरकारों के साथ अपने कार्य-व्यवहार के दौरान आधिकारिक तौर पर हिंदी का ही प्रयोग कर रहे हैं . इस प्रकार वे हिंदी को उसका वह स्थान प्रदान करने की चेष्टा कर रहे हैं जिसकी वह भारतीय संघ की राजभाषा होने के कारण वास्तविकता में अधिकारिणी है. इसका तात्पर्य राहुल ने यह कैसे निकाल लिया कि मोदी सरकार अंग्रेजी को हटा रही है. राहुल के इस प्रकार के चिंतन के  पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  •  राहुल उस एलीटिस्ट चिंतन के तहत इस प्रकार की भावना व्यक्त कर रहे हैं जिसके अनुसार अंग्रेजी    बिना संसार सूना है,अंग्रेजी ही सारे ज्ञान का भंडार है तथा हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाएं पिछडेपन का प्रतिनिधित्व करती हैं.प्रगतिशील होने के लिए अंग्रेजी जानना,बोलनाऔर व्यवहार में लाना आवश्यक है.राहुल के लिए ऐसे विचार रखना स्वाभाविक है क्योंकि उनका पालन-पोषण इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले एलीटिस्ट और स्नॉब वातावरण में हुआ है.
  •  किसी भी प्रतिष्ठित मंच पर और वह भी विदेशों में किसी को हिंदी अथवा कोई अन्य स्वदेशी भाषा बोलने का अधिकार नहीं है. इसके लिए अंग्रेजी ही प्रयोग में लाई जानी चाहिए और यदि कोई हिंदी अथवा किसी अन्य स्वदेशी भाषा का प्रयोग करता है तो यह अंग्रेजी के खिलाफ षडयंत्र है.
  • राहुल भैया ने केवल इसलिए इस मुद्दे का उल्लेख किया क्योंकि यह कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में संवेदनशील मुद्दा है और इसे उठाकर वहाँ राजनैतिक लाभ उठाया जा सकता है.

           जहाँ तक पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय देने  की बात है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं और इसके कारण ज्ञान-विज्ञान तथा उद्योग के क्षेत्र में देश की प्रगति संभव हुई, इसमें सत्य आंशिक  है. नि:संदेह आजादी के समय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली और साहित्य की दृष्टि से हिंदी इवोल्यूशन की स्थिति में थी और इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाई थी कि उसमें ज्ञान- विज्ञान की पढाई तुरंत आरंभ कर दी जाए. इसी बात को मद्देनजर रखते हुए तथा साथ ही साथ गैर हिंदीभाषी राज्यों विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की शंकाओं को ध्यान में रखते हुए संविधान के सन उन्नीस सौ पचास में लागू होने के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में पूरी तरह लागू करने के लिए पंद्रह वर्षों की अंतरिम अवधि  हिंदी को इस हेतु तैयार करने के लिए रखी गई. पर इसका श्रेय  पूरी तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू को देना गलत है. इसका श्रेय संविधान सभा के अध्यक्ष और सदस्यों , संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष और सदस्यों तथा विशेषकर संविधानसभा के उन सदस्यों को  दिया जाना चाहिए जो आजाद भारत में भाषा के मुद्दे को बेहद संवेदनशील मानते हुए इसके समुचित निराकरण के प्रयास में लगे हुए थे. यदि आप इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन लोगों ने इसके लिए काफी मेहनत की थी. ऐसे लोगों में गोपालस्वामी आयंगर,डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी का नाम उल्लेखनीय है. राजभाषा का प्रश्न हल करने के लिए संविधानसभा ने जिस फार्मूले को अपनाया उसे "मुंशी आयंगर फार्मूला" कहा गया और इस फार्मूले के अंतर्गत संविधानसभा में निम्नलिखित प्रस्ताव रखा गया- हम इस बात के पक्ष में हैं कि भारत के संविधान में व्यवस्था की जाए कि राजभाषा और राजभाषा की लिपि क्रमश: हिंदी और देवनागरी होंगी. प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि हिंदी को एकदम अपनाने में व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए अंग्रेजी का प्रयोग अगले पंद्रह वर्षों तक जारी रखा जाए. नेहरूजी की इच्छानुसार प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप का प्रयोग किया जाए . पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी के प्रयोग तथा अंकों के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप संबन्धी बात पर  सेठ गोविंददास द्वारा कडी आपत्ति दर्ज कराई गई. 14 सितम्बर 1949 को के.एम. मुंशी ने सेठ गोविंददास तथा उनके समर्थकों की भावनाओं को समायोजित करने का प्रयास करते हुए एक संशोधित प्रस्ताव रखा जिसके अंतर्गत यह जोडा गया कि लोकसभा पंद्रह वर्षों की अवधि के बाद देवनागरी अंकों के प्रयोग को विधि द्वारा अधिकृत कर सकती है. राष्ट्रपति की अनुमति से क्षेत्रीय तथा उच्च न्यायालयों में  हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जा सकेगा. बिल आदि के लिए राज्य अपनी भाषा का प्रयोग कर सकेंगे. साथ ही संविधान के आठवें अनुच्छेद में संस्कृत को जोडने की व्यवस्था की गई. संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को पारित कर दिया.सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सभी को बधाई देते हुए कहा-"आज यह पहली बार हो रहा है कि हमारा अपना एक संविधान है. अपने संविधान में हम एक भाषा का उपबंध कर रहे हैं जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी."

          पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि वे खुले दिमाग के तथा किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह से मुक्त व्यक्तित्व के धनी थे . गाँधीजी के साथ-साथ वे स्वयं हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिला-जुला स्वरूप) के प्रबल पक्षधर थे . फिर भी जब संविधान सभा में इस प्रश्न पर मतदान हुआ और हिंदी, पुरुषोत्तमदास टंडन तथा सेठ गोविंददास जैसे प्रबल समर्थकों के कारण  हिंदुस्तानी पर भारी पड गई तो नेहरूजी ने सदस्यों की इच्छा का आदर किया तथा हिंदुस्तानी की बात छोड दी.  

         नेहरूजी ने देश के लिए प्रगति का एक खाका तैयार किया और देश को उस रास्ते पर आगे बढाया.  वहीं लोकतांत्रिक मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तथा संस्थाओं के प्रति अपने आदर,अपनी सरलता तथा कूटनीतिक चालाकी के अभाव और कुछ लोगों पर विश्वास कर लेने के स्वभाव के कारण कुछ गल्तियाँ भी कीं पर ऐसी गल्तियाँ किसी के द्वारा भी की जा सकती हैं. अटल बिहारी बाजपेयी का भी नेहरूजी जैसा ही स्वभाव था और इस कारण कुछ  गलतियाँ उनके द्वारा भी प्रधानमंत्रित्वकाल में हुईं .इनके कारण यदि कोई इन महापुरुषों को विलेन के रूप में चित्रित करने  प्रयास करता है तो वह गलत है. आज भाषा की बात तक सीमित रहते हुए इसकी मैं फिर कभी चर्चा करूँगा. 

         पर राहुल भैया से मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि वे कहीं बोलने के पहले ठीक से होमवर्क करके आएं . आज हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य भी लिखा जा रहा है और तरक्की या उन्नति किसी एक भाषा की बपौती नहीं है. यदि ऐसा होता तो जर्मनी, फ्रांस,रूस,जापान और चीन दुनिया के पिछडे राष्ट्रों के रूप में जाने जाते क्योंकि इन राष्ट्रों में उच्चतर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा-दीक्षा भी इनकी अपनी भाषा के माध्यम से दी जाती है.

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