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शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

नए हैं कई चेहरे जो अनजाने दिखाई देते हैं (गजल)

                        -गजल-

नए हैं कई चेहरे जो अनजाने  दिखाई देते हैं
पर कुछ तो हैं पहचाने जो अपने दिखाई देते हैं।।

 हसरत से देखता हूँ अपने उस पुराने घर को
ईद बिना भी लोग बेइंतिहा शाद दिखाई देते हैं।।

सारे के वो सारे हैं बाजार-ए-शहर के बख्शी
आज उनके हाथ बख्शीशों से भरे दिखाई देते हैं।

जीत का सेहरा जब बँधा है सर पर उनके
आज जनाब वो फैजमआब दिखाई देते हैं ।।

लालींलब कितने थे देखे उस हुस्न भरे नगर में
आज हमें फराखसीने भी दिखाई देते हैं।।

उस शहर में कभी फलकजनाब थे "संजय"
जहाँ अब फरहमंद फलकताज दिखाई देते हैं।।
                                            -संजय त्रिपाठी

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

बिन अंग्रेजी सब सून का भ्रम !

          राहुल भैया ने 13 नवंबर के दिन पंडित नेहरू के 125वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में कांग्रेस की तरफ से आयोजित समारोह में अपने एक वक्तव्य में बडे रोष के साथ कहा कि मोदी अंग्रेजी को हटा रहे हैं.राहुल भैया के अनुसार भारत की सारी प्रगति अंग्रेजी के कारण हुई है .इसी कारण देश में ज्ञान-विज्ञान की तरक्की हुई और हमारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर और इंजीनियर विदेशों में गए तथा वहाँ नाम कमाया.राहुल भैया के अनुसार इस बात का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं जिसके कारण यह सब प्रगति संभव हुई.

          राहुल भैया से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि मोदी ने कौन सा ऐसा वक्तव्य दिया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है अथवा उनकी सरकार ने कौन सा ऐसा आदेश जारी किया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है या उसके प्रयोग में कमी लाने की बात कही गई है.यह जरूर है कि मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर और विदेशी सरकारों के साथ अपने कार्य-व्यवहार के दौरान आधिकारिक तौर पर हिंदी का ही प्रयोग कर रहे हैं . इस प्रकार वे हिंदी को उसका वह स्थान प्रदान करने की चेष्टा कर रहे हैं जिसकी वह भारतीय संघ की राजभाषा होने के कारण वास्तविकता में अधिकारिणी है. इसका तात्पर्य राहुल ने यह कैसे निकाल लिया कि मोदी सरकार अंग्रेजी को हटा रही है. राहुल के इस प्रकार के चिंतन के  पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  •  राहुल उस एलीटिस्ट चिंतन के तहत इस प्रकार की भावना व्यक्त कर रहे हैं जिसके अनुसार अंग्रेजी    बिना संसार सूना है,अंग्रेजी ही सारे ज्ञान का भंडार है तथा हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाएं पिछडेपन का प्रतिनिधित्व करती हैं.प्रगतिशील होने के लिए अंग्रेजी जानना,बोलनाऔर व्यवहार में लाना आवश्यक है.राहुल के लिए ऐसे विचार रखना स्वाभाविक है क्योंकि उनका पालन-पोषण इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले एलीटिस्ट और स्नॉब वातावरण में हुआ है.
  •  किसी भी प्रतिष्ठित मंच पर और वह भी विदेशों में किसी को हिंदी अथवा कोई अन्य स्वदेशी भाषा बोलने का अधिकार नहीं है. इसके लिए अंग्रेजी ही प्रयोग में लाई जानी चाहिए और यदि कोई हिंदी अथवा किसी अन्य स्वदेशी भाषा का प्रयोग करता है तो यह अंग्रेजी के खिलाफ षडयंत्र है.
  • राहुल भैया ने केवल इसलिए इस मुद्दे का उल्लेख किया क्योंकि यह कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में संवेदनशील मुद्दा है और इसे उठाकर वहाँ राजनैतिक लाभ उठाया जा सकता है.

           जहाँ तक पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय देने  की बात है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं और इसके कारण ज्ञान-विज्ञान तथा उद्योग के क्षेत्र में देश की प्रगति संभव हुई, इसमें सत्य आंशिक  है. नि:संदेह आजादी के समय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली और साहित्य की दृष्टि से हिंदी इवोल्यूशन की स्थिति में थी और इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाई थी कि उसमें ज्ञान- विज्ञान की पढाई तुरंत आरंभ कर दी जाए. इसी बात को मद्देनजर रखते हुए तथा साथ ही साथ गैर हिंदीभाषी राज्यों विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की शंकाओं को ध्यान में रखते हुए संविधान के सन उन्नीस सौ पचास में लागू होने के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में पूरी तरह लागू करने के लिए पंद्रह वर्षों की अंतरिम अवधि  हिंदी को इस हेतु तैयार करने के लिए रखी गई. पर इसका श्रेय  पूरी तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू को देना गलत है. इसका श्रेय संविधान सभा के अध्यक्ष और सदस्यों , संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष और सदस्यों तथा विशेषकर संविधानसभा के उन सदस्यों को  दिया जाना चाहिए जो आजाद भारत में भाषा के मुद्दे को बेहद संवेदनशील मानते हुए इसके समुचित निराकरण के प्रयास में लगे हुए थे. यदि आप इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन लोगों ने इसके लिए काफी मेहनत की थी. ऐसे लोगों में गोपालस्वामी आयंगर,डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी का नाम उल्लेखनीय है. राजभाषा का प्रश्न हल करने के लिए संविधानसभा ने जिस फार्मूले को अपनाया उसे "मुंशी आयंगर फार्मूला" कहा गया और इस फार्मूले के अंतर्गत संविधानसभा में निम्नलिखित प्रस्ताव रखा गया- हम इस बात के पक्ष में हैं कि भारत के संविधान में व्यवस्था की जाए कि राजभाषा और राजभाषा की लिपि क्रमश: हिंदी और देवनागरी होंगी. प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि हिंदी को एकदम अपनाने में व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए अंग्रेजी का प्रयोग अगले पंद्रह वर्षों तक जारी रखा जाए. नेहरूजी की इच्छानुसार प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप का प्रयोग किया जाए . पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी के प्रयोग तथा अंकों के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप संबन्धी बात पर  सेठ गोविंददास द्वारा कडी आपत्ति दर्ज कराई गई. 14 सितम्बर 1949 को के.एम. मुंशी ने सेठ गोविंददास तथा उनके समर्थकों की भावनाओं को समायोजित करने का प्रयास करते हुए एक संशोधित प्रस्ताव रखा जिसके अंतर्गत यह जोडा गया कि लोकसभा पंद्रह वर्षों की अवधि के बाद देवनागरी अंकों के प्रयोग को विधि द्वारा अधिकृत कर सकती है. राष्ट्रपति की अनुमति से क्षेत्रीय तथा उच्च न्यायालयों में  हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जा सकेगा. बिल आदि के लिए राज्य अपनी भाषा का प्रयोग कर सकेंगे. साथ ही संविधान के आठवें अनुच्छेद में संस्कृत को जोडने की व्यवस्था की गई. संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को पारित कर दिया.सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सभी को बधाई देते हुए कहा-"आज यह पहली बार हो रहा है कि हमारा अपना एक संविधान है. अपने संविधान में हम एक भाषा का उपबंध कर रहे हैं जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी."

          पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि वे खुले दिमाग के तथा किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह से मुक्त व्यक्तित्व के धनी थे . गाँधीजी के साथ-साथ वे स्वयं हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिला-जुला स्वरूप) के प्रबल पक्षधर थे . फिर भी जब संविधान सभा में इस प्रश्न पर मतदान हुआ और हिंदी, पुरुषोत्तमदास टंडन तथा सेठ गोविंददास जैसे प्रबल समर्थकों के कारण  हिंदुस्तानी पर भारी पड गई तो नेहरूजी ने सदस्यों की इच्छा का आदर किया तथा हिंदुस्तानी की बात छोड दी.  

         नेहरूजी ने देश के लिए प्रगति का एक खाका तैयार किया और देश को उस रास्ते पर आगे बढाया.  वहीं लोकतांत्रिक मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तथा संस्थाओं के प्रति अपने आदर,अपनी सरलता तथा कूटनीतिक चालाकी के अभाव और कुछ लोगों पर विश्वास कर लेने के स्वभाव के कारण कुछ गल्तियाँ भी कीं पर ऐसी गल्तियाँ किसी के द्वारा भी की जा सकती हैं. अटल बिहारी बाजपेयी का भी नेहरूजी जैसा ही स्वभाव था और इस कारण कुछ  गलतियाँ उनके द्वारा भी प्रधानमंत्रित्वकाल में हुईं .इनके कारण यदि कोई इन महापुरुषों को विलेन के रूप में चित्रित करने  प्रयास करता है तो वह गलत है. आज भाषा की बात तक सीमित रहते हुए इसकी मैं फिर कभी चर्चा करूँगा. 

         पर राहुल भैया से मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि वे कहीं बोलने के पहले ठीक से होमवर्क करके आएं . आज हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य भी लिखा जा रहा है और तरक्की या उन्नति किसी एक भाषा की बपौती नहीं है. यदि ऐसा होता तो जर्मनी, फ्रांस,रूस,जापान और चीन दुनिया के पिछडे राष्ट्रों के रूप में जाने जाते क्योंकि इन राष्ट्रों में उच्चतर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा-दीक्षा भी इनकी अपनी भाषा के माध्यम से दी जाती है.

सोमवार, 17 नवंबर 2014

इस देश में कुम्भकर्ण ही कुम्भकर्ण हैं!

          कुछ माह पूर्व गंगा की सफाई के मामले में एक मामले की सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की तुलना कुम्भकर्ण से की थी . माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी को पढकर मेरे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया थी कि केवल केंद्र सरकार ही क्यों इस देश में तो कुम्भकर्णों की भरमार है . अगर कुम्भकर्णों की भरमार न होती तो बिलासपुर के नसबंदी कांड जैसी घटनाएं जिसमें अब तक पंद्रह महिलाओं की मौत हो चुकी है बार-बार क्यों घटित होतीं या फिर तीस वर्ष पूर्व घटित ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के अंतिम फैसले का आज भी इंतजार क्यों रहता. बी सी सी आई के पदाधिकारी आई पी एल बेटिंग की तरफ से मुँह फेरे दूसरी दिशा में देखते बैठे न रहते।अपने कर्तव्य से आँख मूँद कर बैठे रहने वाले कानून व्यवस्था को देखने वाले अधिकारी न होते तो जादवपुर के निकट हुए राजनीतिक संघर्ष में एक व्यक्ति की यूँ ही जान न चली गई होती और यही क्यूँ , शायद  रोज घटने वाली तमाम सारी आपराधिक घटनाएं इतनी तादाद में न घटतीं.

          देश को अपने गिरफ्त में ले चुकी कुम्भकर्णी प्रवृत्ति  का एक उदाहरण स्वयं मेरे साथ है. सन 2005 में मेरे विभाग ने सेवानिवृत्ति के नजदीक पहुँच चुकी एक महिला को जो मुझसे कनिष्ठ थी पदोन्नति प्रदान कर दी जिसके कारण  अंततोगत्वा मुझे न्यायालय की शरण लेनी पडी. सन 2011 में लंबी लडाई के बाद कैट ने मेरे पक्ष में फैसला दिया जिसके बाद मामला उच्च न्यायालय में चला गया. उच्च न्यायालय में मैं विभाग द्वारा पदोन्नति में की गई घोर अनियमितता और इस संबंध में कैट में विभाग द्वारा दिए गए झूठे वक्तव्यों को प्रकाश में ले आया. इसका परिणाम यह हुआ कि विभाग ने संपूर्ण समर्पण करते हुए मुझे जल्द से जल्द पदोन्नति देने का वायदा कर मामले को समाप्त करने का निवेदन किया. उच्च न्यायालय ने यह निर्देश देते हुए कि मुझे पीछे जिस तिथि से पदोन्नति मिल जानी चाहिए थी उसी तिथि से पदोन्नति दी जाए, मामले को समाप्त कर दिया. माननीय उच्च न्यायालय ने विभाग के इस निवेदन पर कि मामले को यू.पी.एस.सी. भेजना पडेगा और वहाँ से अनुमत्य होकर आने में एक साल लग जाएंगे उन्हें एक साल का समय अपने द्वारा दिए गए निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए दे दिया. तब से लगभग  तीन वर्ष का समय होने को आया मैं अभी भी अपनी पदोन्नति का इंतजार ही कर रहा हूँ . गत वर्ष मैंने निर्णय का कार्यान्वयन न होने के कारण माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष 'न्यायालय की अवमानना' का मामला दायर किया परंतु इसके बाद डेढ वर्ष से अधिक का समय होने को आया मेरे केस की लिस्टिंग ही नहीं हो रही है. वकील कह देता है- 'देयर इज नो बेंच'. जब  मैंने वकील से परामर्श किया तो उन्होंने कहा कि मेरे केस में निर्णय देने वाले दोनों जज अलग बेंचों में चले गए हैं पर चूँकि निर्णय उनका था इसलिए अवमानना का मामला भी नियमानुसार  उनके ही द्वारा सुना जाएगा. जब तक उक्त दोनों जज आपस में बात कर विशेष रूप से मेरे मामले को सुनने के लिए तिथि नहीं निर्धारित करेंगे  तब तक मेरा मामला सुना नहीं जाएगा. सप्ताह में केवल एक घंटे का समय अवमानना के मामलों को सुनने के लिए निर्धारित है. उसमें भी मेरे मामले में जजों के अलग-अलग होने के कारण - जो ब्रोकेन बेंच कहलाती है , मामले के सुने जाने की संभावना अत्यंत क्षीण है. कुल मिलाकर इसके सिवाय कि मैं हाथ पर हाथ धरे न्यायालय की कृपा का इंतजार करता रहूँ कोई चारा नहीं है और यह कृपा कब होगी इसका भी कोई भरोसा नहीं है. मैंने अन्य वकीलों से भी बात की पर सबने हाथ खडे कर दिए. इस प्रकार कैट से और फिर उच्च न्यायालय से ( और वह भी विभागीय संपूर्ण समर्पण के बाद) दस साल तक लडाई लड कर मामला जीतने के बाद भी मेरी हालत 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' वाली है क्योंकि मेरे द्वारा दायर किए गए न्यायालय की अवमानना के मामले की जल्दी या निकट भविष्य में सुनवाई की कोई आशा नहीं है. वे विभागीय अधिकारी जिन्होंने मेरे साथ अन्याय किया इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था को देखते हुएअपने-अपने स्थान पर आनंद मना रहे हैं.

          माननीय सर्वोच्च न्यायालय क्या केंद्र सरकार के अलावा अन्य स्थानों पर हो रहे कुम्भकरणीय आचरण के बारे में भी कुछ करेगा या कहेगा.

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

आई. पी. एल. अंतर्कथा : इज्जत का फालूदा बना तो क्या कुर्सी तो सलामत रहे! (व्यंग्य)

      
          देश के तमाम लोग कह रहे हैं कि एन.  श्रीनिवासन साहब  बी. सी. सी. आई. के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें. पर आखिर क्यों ? जमाई के  द्वारा किया गया पाप श्वसुर के सर क्यों मढ रहे हैं आप लोग ? जमाई तो सदियों से श्वसुर  की लुटिया  डुबोते आए  हैं. सबसे पहले तो  प्राचीनकाल में "स्यामंतक"  हीरे की खोज में निकले हमारे भगवान श्रीकृष्ण ने जाम्बवान को मुष्टियों के प्रहार से अधमरा कर दिया फिर  उनकी सुपुत्री जाम्बवती को अपनी अर्धांगिनी बनाने के  लिए भी  सहमति  प्रदान कर दी.  कालांतर में  पृथ्वीराज चौहान  दिनदहाडे   शेष भारत के राजाओं के सामने  इस बात को नजरअंदाज करते हुए कि जयचंद उनका मौसेरा  भाई था और इस  नाते संयोगिता रिश्ते में उनकी भतीजी ही थी, संयोगिता को  घोडे पर बिठाकर भगा ले गए;  भले ही देश के हक में उनकी इस हरकत का अंजाम बुरा हुआ. आधुनिक इतिहास के आरंभिक दौर में  मीर कासिम ने मीरजाफर को बंगाल की नवाबी से बेदखल करवा कर  गद्दी कब्जियाई  और ज्यादा  पीछे न जाएं तो यही कोई बीस-इक्कीस साल पहले चंद्राबाबू नायडू ने एन.टी  रामाराव का तख्तापलट कर खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली. अगर भगवान  श्रीकृष्ण को छोड दें जिन्होने खुल्लमखुल्ला जाम्बवान को चैलेंज किया था (आखिर वो तो भगवान थे न), तो  बाकी सबने श्वसुरों को इस बात का कोई इमकान न होने दिया कि वे  पलीता लगाने वाले हैं  और जब आतिशबाजी शुरू हुई तो पहले तो उन्हें(श्वसुरजन को ) यह  समझ में ही नहीं आया कि कि उसका कर्ता-धर्ता कौन है. तो कुल कहने का आशय यह है साहब, कि ये सोलह आने संभव है कि बेटे समान प्रिय दामाद क्या कर रहा है इसका कुछ भी भान श्रीनिवासनजी  को न रहा हो. आप कहते हैं कि कोडाइकोनाल  में दो दिन पहले तक तो दोनो साथ-साथ थे  और आनंद मना रहे  थे. तो आप कहते रहिए साहब!अब आप क्या उम्मीद करते हैं कि पृथ्वीराज, मीर  कासिम   और चंद्राबाबू की श्रेणी  का दामाद  अपने तुरुप के पत्ते श्वसुरजी को   दिखाकर कहेगा-" पिताजी देखिए ,अगली चाल  में मैं  इसे डालने वाला हूँ."  तो साहब आप  श्रीनिवासन साहब की इस बात  पर पूरा भरोसा रखिए कि वह दामाद जिसे उन्होने विवादों से बचने के  लिए चेन्नई सुपर किंग के मालिक के रूप में प्रचारित करवा रखा था, लाखों-करोडों रूपए आई पी एल की बेटिंग पर लगा रहा था,फिक्सिंग कर रहा था पर उन्हें कुछ भी मालूम  नहीं था. जब बंसल साहब का भांजा करोडों का लेन-देन कर  रहा था  और बंसल साहब को  कुछ भी मालूम नहीं था  तो यह कोई अजूबे की  बात नहीं कि श्रीनिवासन साहब को कुछ भी मालूम नहीं  था. अब इस देश में यही हो  रहा है , माँ-बाप  और सास-श्वसुर की पूरी एक जमात धृतराष्ट्र बन चुकी है. उनके बेटे, दामाद, भतीजे और भांजे उनकी नाक के नीचे क्या कर रहे हैं उन्हे मालूम  नहीं रहता.मांएं कहती हैं -उनका बेटा भोला भाला है,वो कोई गलत काम कर ही नहीं सकता. न यकीन हो तो पिछले चर्चित बलात्कार के मामलों में सारे आरोपियों की मांओं के बयान पढ लीजिए. तो साहब मैं बार-बार कहता हूँ कि श्रीनिवासन साहब को यह बिलकुल मालूम नही था कि उनका दामाद  क्या कर रहा है.

          फिर मेरियप्पन का कहना है कि उसे दारापुत्र विंदू ने बहकाया है.बच्चा है बेचारा, आ गया बहकावे में! श्रीनिवासन साहब का कहना है कि मेरियप्पन क्रिकेट एंथूसिएस्ट है. इतना भी आप लोग नहीं समझते. वह तो अपने एंथूसियाज्म में महज कौतूहलवश चेन्नई सुपर किंग की  टीम के  साथ-साथ घूम  रहा   था. अब अगर लोग उसे चेन्नई सुपर किंग का   मालिक समझने लगे ,राजीव शुक्ला उसे यही मान कर  ई-मेल भेजने  लगे तो इसमें न तो श्रीनिवासन की कोई गलती है और न ही मेरियप्पन की .

          आप कहते हैं कि अगर श्रीनिवासन साहब को दामाद  की  करतूतों के बारे में नहीं भी मालूम था तो भी वह नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दें. आखिर क्यों दें भाई? कौन है इस देश में जो नैतिक आधार पर इस्तीफा दे  रहा है? लालबहादुर शास्त्री की बात करते हो,अरे वो जमाना चला गया भाई! क्यों पुरानी बातों को कलेजे से चिपकाए बैठे हो? भूल जाओ नैतिकता-फैतिकता! अब तो जब तक कुर्सी पर से धकियाया नहीं जाता या हाथ पकड कर ऐंठा  नहीं जाता तब तक कोई कुर्सी नही छोडता. फिर श्रीनिवासन साहब  ही आपको मिले हैं नैतिकता का पाठ पढाने  के लिए. जब इस आई. पी. एल. का आगाज ही नीलामी के साथ होता है  जिसमें खिलाडियों पर बोली लगती है और जिसे पहली बार देख कर एक नीलाम हो रहे विदेशी खिलाडी ने कहा था-"आई वाज फीलिंग लाइक ए काऊ",तो किस  नैतिकता की बात आप करते हैं? आई.पी.एल. की  सफलता के पीछे मार्केटिंग के सारे नुस्खे हैं. मार्केटिंग का मूलमंत्र है- पैसा लगाओ और पैसा कमाओ ,उसके लिए जो भी हथकंडा जरूरी  हो अपनाओ :फनफेयर ,चीयरलीडर और पार्टियाँ ,ये सब वही तो हथकंडे थे. आई. पी. एल. तो एक बिकाऊ माल है,खाली स्पोर्ट्स-स्पोर्ट्स आप क्या लगाए बैठे हो? श्रीनिवासन साहब  का कहना है -"आई कांट बी बुलडोज्ड इन टू   रिजाइनिंग". तो आप लोगों को ये मालूम नहीं है कि श्रीनिवासन साहब खुद बुलडोजर हैं. आपकी क्या औकात कि उन्हें बुलडोज करें. ये उनकी ही हैसियत थी  कि उन्होंने ये कानून ही बदलवा दिया था कि बी. सी. सी. आई. के पदाधिकारी आई. पी. एल. टीमों के मालिक नहीं बन सकते. तो  साहब  वे अपनी मनमर्जी करते हैं और ये उनकी आदत में शुमार है. बी. सी. सी. आई. के किसी सदस्य या पदाधिकारी की हिम्मत उनके आगे चूँ करने की नहीं है. उसे उन्होंने कौरवों की सभा में तब्दील कर दिया है जहाँ बडे-बडे दिग्गज बैठे हैं पर सारी नैतिकता भूल कर चुपचाप  बैठे हैं. वे राजनीतिक सूरमा भी जो बात-बात पर प्रतिद्वंदी दल के लोगों  से इस्तीफे की माँग  करते हैं.

          श्रीनिवासन साहब ने जब कहा कि कानून अपना काम करेगा और दोषियों को सजा मिलेगी तो  उन पर भरोसा करना चाहिए था और न्यायालय को इसमें दखल देने की क्या जरूरत थी, भले ही उनके दामाद  के बारे में आने  वाली रिपोर्ट  और उनकी आई. पी. एल. टीम (दुनिया जानती है कि चेन्नई सुपर किंग  किसकी टीम है) के  बारे  में उन्हें खुद ही फैसला करना था. आप लोगों को खामखाँ उनकी नीयत पर  शक नहीं करना चाहिए था. उन्हें शेरशाह सूरी की श्रेणी का मानिए जिसने अपने बेटे द्वारा किसी की पत्नी के ऊपर थूक दिए जाने पर उसके लिए भी  इसी तरह के  बर्ताव का प्रावधान किया था. भले ही आज के भारत में इस तरह के सारे आश्वासन झूठे साबित हो रहे हों पर आप जगजीत सिंह की गाई गजल के मुताबिक झूठे वादे पर यकीन करके अपनी उम्र बढा लीजिए. आखिर आने वाले साल तक आप ये सारी बातें भूल चुके होंगे और   किसी न किसी आई. पी. एल.  टीम को  सपोर्ट कर उसकी जय-जयकार में लगे  होंगे.इस देश में तमाम सारे  गम हैं और क्रिकेट तथा आई पी एल का कांबीनेशन उन गमों को भुलाने की सबसे अच्छी दवा है.

          अब इस न्यायिक व्यवस्था को क्या कहा जाए जिसने आज खुल्लमखुल्ला श्रीनिवासन साहब का नाम उजागर कर उन पर तोहमत लगा दी  है.