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बुधवार, 23 जुलाई 2014

माहे ताबाँ की जुबाँ ने ले भी लिया क्या नाम हमारा (गजल)

          मेरे प्रिय मित्र विक्रम सिंहजी ने आज एक शेर पोस्ट किया था. उसी से प्रेरित होकर लिखी गई यह गजल प्रस्तुत है -


                         गजल
माहे ताबाँ की जुबाँ ने ले भी लिया क्या नाम हमारा
रकीबों की फेहरिस्त में लिख बैठा वो नाम हमारा॥

दुश्मन समझने लगा है जब वो सारे जमाने को
इसमें कर भी पाएगा क्या अब कोई दोस्त बेचारा॥

माहजबीं की जुल्फों के पेंचोखम में यूँ उलझ गया वो
सालों माँ से पूछा भी नहीं उसने है क्या हाल तुम्हारा॥

अरसा हो गया माँ ने सुनी ही नहीं है बेटे की आवाज
हुई भरपूर बारिश तो बोली वो है कोई पुर्सानेहाल हमारा॥

खेतों -अमराइयों में जाने का अब उठता  है कहाँ सवाल
कई सालों से जा भी नहीं पाया है गाँव वो दोस्त हमारा॥

किसी के दिल की गिरह को सुलझाने में हूँ  यूँ मुब्तला
खूबसूरती हो मुजस्सम"संजय" पर आता नहीं दिल हमारा॥
                                                        -संजय त्रिपाठी

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