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सोमवार, 31 मार्च 2014

अरविंद मोदी नहीं, राहुल के लिए चुनौती हैं.

         इस समय भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर तीन सितारे दिखाई दे रहे हैं- नरेंद्र, राहुल  और अरविंद. वैसे तो ममता,जयललिता और मुलायम भी इस परिदृश्य पर अपनी मौजूदगी का दावा कर रहे हैं पर पूर्व तीनों के आगे इनकी चमक क्षीण होने के कारण दिखाई नहीं  दे रही है.  इस समय अब तक के सारे आकलन  और सर्वेक्षण बता रहे हैं इनमें सबसे अधिक चमक फिलहाल नरेंद्र की बिखर रही है. इसके बाद राहुल और अरविंद  का नंबर आता है. राहुल के खेमे में फिलहाल कुछ मायूसी दिख रही है क्योंकि बडे-बडे कांग्रेसी दिग्गज चुनाव के नाम से कतरा रहे हैं. वहीं अरविंद का खेमा चुनौती पेश करने की  कोशिश कर रहा है. अरविंद का यह दावा शायद वास्तविकता से कोसों दूर है कि 'आप' 100 सीटें जीतेगी और सरकार बनाने  में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी पर उनका यह दावा ये जरूर दर्शाता है कि अरविंद एक  राजनीतिज्ञ के रूप में ढल रहे हैं. दूसरे अरविंद के  खेमे में एक उत्साह  है भले ही वह चुनौती देने मात्र का हो. 

          अरविंद तथा उनके साथियों ने  स्वयं अपनी ही  तरफ दिसंबर में दिल्ली में सत्ता ग्रहण करने के बाद कुछ गोल किए हैं. पर इस सबके बावजूद अरविंद ने संघर्ष  करने का और चुनौतियाँ देने माद्दा दिखाया है.  यह इस समय मोदी के लिए उतनी बडी खतरे की घंटी नहीं है जितना कि राहुल के लिए. इस तथ्य को शायद अरविंद भी जानते हैं कि वे मोदी को कोई वास्तविक चुनौती  नहीं दे पाएंगे तथापि उनका सारा प्रयास स्वयं को एक विकल्प के रूप में जनता के सामने पेश करने का है. इस प्रकार जहाँ भविष्य में एक द्विध्रुवीय व्यवस्था के अंतर्गत राहुल, मोदी का स्वाभाविक विकल्प होते वहीं उनके इस स्थान को हडपने का प्रयास कर अरविंद कम से कम राहुल के लिए "अमानत में खयानत" जैसी स्थिति पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं. कांग्रेस के आत्मविश्वास में  कमी आ गई है. यही कारण है कि  जहाँ राहुल ने कुछ दिनों पहले यह कहा कि कांग्रेस "आप" के साथ मिलकर काम कर सकती है वहीं एंटोनी थर्ड फ्रंट के साथ मिलकर कांग्रेस की सरकार बनाने की बात  कर रहे हैं. पर यदि कांग्रेस अपना आत्मविश्वास और संघर्ष का माद्दा वापस नहीं लौटा  पाती है तो उसके स्थान को कब्जियाने की घात लगाए अरविंद और उनकी"आप" बैठी है.सन उन्नीस सौ सतहत्तर में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो उसके पास इंदिरा गाँधी जैसा जुझारु व्यक्तित्व था. फिर सन उन्नीस सौ नवासी में कांग्रेस जब सत्ता  से बाहर हुई तो कुछ समय के बाद राजीव गाँधी ने देश के विभिन्न भागों का दौरा  शुरू किया तथा उन्हें अच्छा प्रतिसाद भी  मिलने लगा. ठीक चुनाव के पहले उनकी हत्या हो गई जिसने कांग्रेस के पक्ष में सन उन्नीस  सौ इक्यानबे में सहानुभूति की लहर पैदा की जिसके कारण कांग्रेस को पुन: सत्ता में आने में सहायता मिली. सन उन्नीस सौ छियान्नबे,अट्ठानबे तथा निन्यानबे  में लगातार तीन हारों के बाद कांग्रेस पस्त  थी तब सोनिया गाँधी को  इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने कांग्रेस  को संघर्षशील बनाया तथा उसे पुन: एक  बार सत्ता में ले  आईं.

          पर अब  जबकि सोनिया कांग्रेस की  कमान राहुल को स्थानांतरित करने की प्रक्रिया मे हैं यह प्रश्न उठता है क्या राहुल अपनी माँ और दादी जैसी संघर्षशीलता का भविष्य में  प्रदर्शन कर पाएंगे विशेषकर तब जबकि अप्रत्यक्ष रूप से अरविंद, राहुल को चुनौती देने और उनके स्थान पर कब्जा जमाने के लिए तत्पर दिखते हैं.अरविंद के मार्ग के कंटक सिर्फ उनकी पार्टी की सेल्फगोल करने की प्रवृत्ति तथा भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले उनकी  पार्टी का सांगठनिक रूप से कमजोर होना है. पर उनमें सीखने की प्रवृत्ति तेज  है. ऐसी स्थिति में राहुल के ऊपर  इस बात का सारा दारोमदार आ पडेगा कि वे अपने संगठन और साथियों में विश्वास को वापस लौटा लाने का प्रयास करें तथा अपने पूरे संगठन को एक  संघर्षशील संगठन के रूप में तब्दील करें. इसके लिए उन्हें अपनी साफ्ट समझी जाने वाली छवि को परिवर्तित कर स्वयं को एक जुझारु  व्यक्तित्व के रूप में पेश करना  होगा अन्यथा इस बात का पूरा-पूरा अंदेशा है कि इसमें चूकने पर उन्हें अंततोगत्वा अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए  'आप' के साथ रह कर काम करना पडे जैसा कि चौधरी चरण सिंह जैसी शख्सियत के  पुत्र अजीत सिंह को  कभी इस दल और कभी उस दल के साथ रह कर करना पड रहा है.

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