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शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

क्या अरविंद केजरीवाल राजनीतिक हो चले हैं?

जब आम राजनैतिक दलों से अलग प्रकृति की “आप” ने अराजनैतिक अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली की सत्ता  ग्रहण की थी तो तमाम लोगों को “आप” और अरविंद दोनों से ही तमाम उम्मीदें बँधीं थीं. उन्चास दिनों तक सत्तासीन रहने के बाद “आप” ने सत्ता त्याग दी है तो तमाम सारे सवाल उठ खडे हुए हैं.

क्या “आप” और उसके नेता मिथ्याचारी और ढोंगी  (हाइपोक्राइट) हैं? अन्यथा, जब वे जानते थे कि उनके पास बहुमत नहीं है तो उसी कांग्रेस की मदद से उन्होंने सत्तासीन होने का निर्णय क्यों किया जिसके कुशासन और भ्रष्टाचार के विरूद्ध उन्होंने संघर्ष किया था. अरविंद का कहना है कि ऐसा जनाकांक्षाओं के चलते किया गया जिसकी पुष्टि रेफेरेंडम द्वारा की गई थी. यहाँ सवाल यह उठता है कि फिर पदत्याग करते समय उसी प्रक्रिया का पालन क्यों नहीं किया गया. हाइपोक्रिसी का एक अन्य उदाहरण लोकसभा चुनावों के लिए इच्छुक उम्मीदवारों से आवेदन मँगवाना,उनसे फार्म भरवाना तथा साक्षात्कार आयोजित करना है. कुछ सीटों के लिए पहले से उम्मीदवार तय कर लिए गए हैं फिर भी उन सीटों के लिए यह नाटक किया गया. अमेठी की सीट के लिए कहा जा सकता था कि इस सीट के लिए कुमार विश्वास पहले से चयनित हैं तथा व्यर्थ उक्त प्रक्रिया को अयोजित करने की कोई  जरूरत नहीं थी.  

क्या सत्ताग्रहण और पदत्याग योजनाबद्ध तरीके से किया गया ताकि लोकलुभावन घोषणाओं द्वारा और जनलोकपाल के मुद्दे पर पदत्याग कर उसे शहादत का जामा पहनाकर जनता को भरमाया जा सके तथा लोकसभा चुनावों में उसका फायदा लिया जा सके. हालांकि अरविंद  का कहना है कि ऐसा नहीं था, वे शासन करने के प्रति गंभीर थे अन्यथा वे घर बदलने की जहमत क्यों उठाते तथा अब जबकि उनकी बेटी की बोर्ड परीक्षाएं सर पर हैं, उसी समय वे पदत्याग क्यों करते. उनका कहना है कि वे जनलोकपाल तथा स्वराज के मुद्दे के प्रति कटिबद्ध हैं जिन पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता था. यदि यहाँ अरविंद सही हैं तो उन्होंने जनलोकपाल बिल के वित्तीय बिल होने के कारण, इस प्रकार के बिल को पेश किए जाने की विहित प्रक्रिया जिसके अनुसार लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से बिल को केंद्रीय सरकार को संदर्भित करना था; का अनुपालन क्यों नहीं किया. उन्होंने विचार-विमर्श और निर्धारित प्रक्रिया का अनुपालन कर बिल को पास करवाने के लिए सही रास्ता क्यों नहीं अपनाया.

जब अरविंद दूसरों पर उँगली उठाते हैं तो उन्होंने सोमनाथ भारती या अपने अन्य मंत्रियों के मामले में उँगली उठने पर उसके निराकरण हेतु कोई उपाय क्यों नहीं किया.

अब जबकि “आप” की महत्वाकांक्षाएं केंद्रीय सत्ता को पाने की हैं और यह संभव भी है क्योंकि जब हर्दनहल्ली देवगौडा इस देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो निश्चय ही कोलीशन सरकार बनने की स्थिति में कल अरविंद केजरीवाल भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं भले ही उनके पास दस ही सांसद हों; तो सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ दूसरों पर उँगलियाँ उठाते रहना ही केंद्रीय सत्ता पाने के लिए पर्याप्त है. निश्चय ही उन्हें सर्वप्रथम उस आर्थिक रास्ते को परिभाषित करना चाहिए जिस पर वे देश को ले जाना चाहते हैं. उन्हें यह भी बताना होगा कि उद्योग, व्यापार और कृषि के लिए उनकी नीतियाँ क्या होंगी. वे नौजवानों के लिए रोजगार का सृजन कैसे करेंगे. देश की विदेश नीति और रक्षानीति क्या होगी. देश की आंतरिक सुरक्षा के बारे में उनकी पार्टी के विचार क्या होंगे विशेषकर इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि उनकी पार्टी के एक पुरोधा जम्मू काश्मीर में रेफेरेंडम की वकालत करते रहे हैं. स्वयं अरविंद  दिल्ली में अपने धरने के अवसर पर कह चुके हैं कि 26 जनवरी मना कर क्या होगा.  
  
सी आई आई की एक बैठक को 17 फरवरी को संबोधित करते हुए अरविंद ने जो कुछ कहा वह कहीं कुछ हद तक आश्वस्त करने वाला हो सकता है. उन्होंने कहा कि वे क्रोनी कैपटलिज्म के विरोधी हैं कैपिटलिज्म के नहीं. उन्होंने यह भी कहा कि वे निजी उद्यमों के विरोध में नहीं हैं तथा रोजगार के सृजन में इन उद्यमों की भूमिका महत्वपूर्ण है. उन्होंने उद्यमों में सरकार की भागीदारी का समर्थन न करते हुए सरकार को सुशासन केंद्रित बनाने पर जोर दिया. पर अपने इन विचारों को उन्हें विधिवत पार्टी की नीतियों के तौर पर परिभाषित कर देना चाहिए ताकि भ्रम की कोई गुंजाइश न रहे क्योंकि उनकी पार्टी के लोग इच्छानुसार अलग-अलग अपने विचार व्यक्त करते रहते हैं.
 
“जनलोकपाल” की अपनी सीमाएं हैं, भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए पहले आम चरित्र को बदलने की जरूरत है, दूसरे यह भी देखना होगा कि जनलोकपाल की संस्था इंसपेक्टरराज का ही एक और तंत्र बन कर न रह जाए. इसी प्रकार “स्वराज”  स्थानीय स्तर की समस्याओं के समाधान में ही सहायक हो सकता है क्योंकि इसकी  आत्मा मुहल्ला और ग्रामसभाओं को सर्वशक्तिमान बनाए जाने तथा रेफरेंडम की अवधारणा में निहित है और इसके आधार पर राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे हल नहीं किए जा सकेंगे. जनलोकपाल तथा अरविंद केजरीवाल की अवधारणा के स्वराज से ही देश की सारी समस्याओं का निराकरण नहीं हो सकेगा.


सपने देखना और दिखाना आसान है पर उनको पूरा करने के लिए विचारों की स्पष्टता तथा सुव्यवस्थित और समयबद्ध कार्ययोजना एवं कठोर परिश्रम आवश्यक है. पिछले दो महीनों के दौरान अरविंद का आचरण देखकर लगता है कि वे धीरे-धीरे राजनीतिक हो चले हैं. एक लंबे अरसे से जनता के सपने टूटते आ रहे हैं. क्या एक और सपना टूटेगा या फिर टूट चुका है ? इसका जवाब अरविंद केजरीवाल के पास है. 

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