hamarivani.com

www.hamarivani.com

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

भारतवर्ष में असमानता की समस्या

          श्री सुनील खिलनानी ने दिनाँक 31जनवरी,2014 के  "टाइम्स आफ इंडिया" में अपने एक आलेख के माध्यम से भारतवर्ष में असमानता के सवाल को अहम बताते हुए इस बात पर खेद जताया है कि  राहुल गाँधी, नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल में  से किसी ने भी इस मुद्दे  पर बात या चर्चा नहीं की है.  उनका कहना है कि पूरी  दुनिया में  असमानता के मुद्दे को  महत्व देते हुए उस पर बहस की जा रही है परंतु भारत में इसकी अहमियत को नहीं समझा जा रहा है.   मैं स्वयं भी श्री खिलनानी के विचारों से इत्तफाक रखता हूँ और इस विषय पर सोचता रहा हूँ तथा इस संदर्भ में यहाँ अपने विचार रख रहा हूँ.

          श्री खिलनानी के आलेख को पढकर लगता है कि उनका आशय मुख्यतया आर्थिक असमानता से है. पर जब हम भारत के संदर्भ में बात करते हैं तो आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक असमानता का प्रश्न भी सामने आ जाता है.  कमोबेश सामाजिक असमानता के बारे में समय-समय पर  भारत में बात होती रही है पर हमारे राजनैतिक दलों और नेताओं ने सामाजिक असमानता का निदान प्राय: आरक्षण व्यवस्था को ही समझा है.  आरक्षण सामाजिक असमानता का एकमात्र निदान  नहीं है क्योंकि आरक्षण व्यवस्था का लाभ उठाने के लिए भी व्यक्ति को कम से कम एक न्यूनतम योग्यता हासिल होनी चाहिए. यदि कोई आर्थिक रूप से कमजोर है तो उसके लिए इस न्यूनतम योग्यता को हासिल करना ही समस्या है.  एक अन्य बात यह है कि आरक्षण का लाभ उठा रहे समुदायों में अब एक वर्ग ऐसा तैयार हो गया है जिसके साथ आर्थिक और शैक्षणिक पिछडेपन  की समस्या नहीं है  और आरक्षण व्यवस्था का अधिकांश लाभ इसी तबके को मिल रहा है . इस कारण आरक्षण  व्यवस्था  की सुविधाप्राप्त समुदायों का एक बडा तबका आर्थिक पिछडेपन के कारण  आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाता है जिन्हें आरक्षण की सुविधा देते समय प्राथमिकता  दी जानी चाहिए तभी आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सकता है. पर कुल मिलाकर आरक्षण एक अस्थाई समाधान ही है क्योंकि मुख्य समस्या सभी  को समान अवसर प्रदान करने और एक ही धरातल पर खडा करने की है और इसके लिए सामाजिक भेदभाव की समाप्ति के  साथ-साथ सभी के लिए समान रूप से  शैक्षणिक और स्वयं के विकास अवसर उपलब्ध होना आवश्यक है.

           शिक्षा वह मुख्य तत्व है जो आर्थिक और सामाजिक दोनों प्रकार की असमानता की समाप्ति में सहायक हो सकता है. यहाँ शिक्षा का तात्पर्य हमें समग्र  शिक्षा से  लेना चाहिए जिसके अंतर्गत स्कूली शिक्षा के अलावा तकनीकी,व्यावसायिक और कौशल संबंधी शिक्षा भी शामिल हैं. शिक्षा ही किसी को भी इस योग्य बनाती है कि वह अपनी क्षमतानुसार देश की  सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों  में भागीदारी करे.  पर यहाँ समस्या यह है कि सभी भारतीयों को शिक्षा के अवसर समान रूप  से उपलब्ध नहीं हैं. श्री खिलनानी ने इस  असमान उपलब्धता को द्विस्तरीय शिक्षा प्रणाली की संज्ञा  दी है.  एक ओर स्तरीय निजी शिक्षा प्रणाली है पर मंहगी होने के कारण सभी भारतीय इसका लाभ नहीं उठा सकते हैं. दूसरी ओर सरकारी शिक्षा प्रणाली  सभी के लिए उपलब्ध है पर यह सदैव स्तरीय नहीं पाई जाती है. इस प्रकार समाज का गरीब तबका गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  से वंचित रह जाता है. यद्यपि संसद ने शिक्षा के अधिकार को मान्यता दे दी है  पर वास्तविकता में इसके  परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं. इसके बेहतर परिणाम मिलने के लिए सरकारी शैक्षणिक संस्थानों की स्थिति में सुधार आना  आवश्यक है जो इन संस्थानों को उत्तरदायी तथा परिणामोन्मुखी  बनाकर किया जा सकता है. सरकारी संस्थानों के प्रमुख,शिक्षक तथा कार्मिक निजी संस्थानों के कर्मचारियों की  तुलना में बेहतर वेतन पाते हैं इसलिए इस बात का  कोई  कारण नहीं है कि ये बेहतर परिणाम न दें. मुख्य समस्या जिम्मेदारी की भावना का अभाव है. नौकरी की सुरक्षा को कार्यनिष्पादन तथा परिणाम के साथ जोडकर सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में जिम्मेदारी की भावना पैदा की जा सकती है.


         जहाँ तक आर्थिक  असमानता का सवाल है ओ ई सी डी की रिपोर्ट के  अनुसार पिछले दो  दशकों में भारत में आय संबंधी असमानता में दोगुने का इजाफा हुआ है. श्री खिलनानी के अनुसार एक दशक पहले किए  गए एक सर्वे के अनुसार  भारत  में असमानता का स्तर ब्राजील  से भी अधिक है. आर्थिक असमानता के संबंध में  भारत की केंद्रीय और राज्य सरकारों के  प्रयास  खैरात बाँटने जैसे ही रहे हैं जो समस्या  को स्थाई  रूप से हल नहीं कर सकते. केंद्रीय सरकार इस दिशा में मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिकार  को अपनी उपलब्धियों के रूप  में  गिनाती है. पर यह योजनाएं अस्थाई उपाय जैसी हैं जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर नहीं बनाती हैं. जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है वह देश की आर्थिक गतिविधियों  में सक्रिय भागीदारी नहीं कर सकता. राज्य सरकारों में भी कमोबेश केंद्र जैसी यही प्रवृत्ति है. भा.ज.पा. शासित छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह 'चावल वाले बाबा' कहलाते हैं क्योंकि उन्होने सस्ती दर पर गरीबों के लिए चावल उपलब्ध  करवाया है जबकि इसी दल द्वारा शासित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान  बालिकाओं के लिए अपनी आर्थिक सहायता योजनाओं के कारण  'मामाजी' कहलाते हैं. 

        आर्थिक असमानता को दूर  करने के लिए यह आवश्यक है कि देश के  सभी नागरिकों को ,उन्हें भी जो आज की तारीख में गरीब को परिभाषित करते हैं , आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी करने का अवसर मिले. इसके लिए आर्थिक विकासोन्मुखी (ग्रोथ ओरिएंटेड) नीतियाँ आवश्यक हैं जिसकी तरफदारी श्री नरेंद्र मोदी कर रहे  हैं. राहुल गाँधी ने भी अपने प्रथम औपचारिक साक्षात्कार में उत्पादन(मैन्युफैक्चरिंग ) पर जोर देने की बात कही है. पर पिछले पाँच वर्षों के दौरान केंद्रीय सरकार ने इस  दिशा में कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है . आर्थिक गतिविधियों में बढोत्तरी औरर आम  नागरिकों की उसमें भागीदारी के लिए देश के अपने बाजार के  विकास और उसमें अधिक से अधिक भारतीयों की किसी न किसी रूप में भागीदारी के अलावा निर्यात की नई संभावनाओं को तलाशा जाना महत्वपूर्ण है. निर्यात की संभावनाएं  भी नए-नए बाजारों की खोज, उनकी  जरूरत के  सामान की पहचान और कमतर लागत रखते हुए अच्छी गुणवत्ता के साथ उनके निर्माण और उत्पादन द्वारा ही बेहतर की  जा सकती हैं . चीन ने सफलतापूर्वक इसे कार्यान्वित किया है. दूसरे इस दिशा में हमें सघन प्रयास करने होंगे  क्योंकि आज के दौर में  निर्यात अब उतना आसान नहीं रह गया है. आर्थिक समस्याएं हर देश के सामने किसी न किसी रूप में हैं और विभिन्न देशों की सरकारें 'प्रोटेक्शनिस्ट" हो चली हैं.  विशाल आबादी के कारण स्वयं हमारे देश में ही एक बडा बाजार है.जरूरत इस बात की  है कि अधिक से अधिक जनता के पास क्रयशक्ति हो और उसमें निरंतर बढोत्तरी हो जो औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहन दिए जाने पर तथा उसमें अधिक से अधिक लोगों के सक्रिय भाग लेने पर निर्भर है. 

          देश में गरीबी की स्थिति को देखते हुए सहायता योजनाओं तथा कार्यक्रमों को पूरी तरह  बंद नहीं किया जा सकता पर सामान्य जनता पर आर्थिक भार तथा आर्थिक घाटे को कम से कम रखने  के लिए उसे   गरीब तबके  तक सीमित किया जाना चाहिए.  सबको आत्मनिर्भर बनाने तथा असमानता में  कमी लाने के लिए तीव्र आर्थिक विकास का रास्ता ही एकमात्र उपाय है. कुल मिला कर  हमें प्रो. अमर्त्य सेन  और प्रो. जगदीश भगवती  द्वारा प्रतिपादित आर्थिक नीतियों तथा माडलों के बीच एक समन्वय बनाना  होगा ताकि जहाँ गरीबों को फौरी राहत मिले  और उनके लिए जीवन कुछ आसान बन सके वहीं उन्हें वह रास्ता भी मिले जिससे वे गरीबी के दुष्चक्र से सदैव के लिए बाहर आ सकें और भारत में अंततोगत्वा असमानता कम  हो . अन्यथा सामान्य  गरीब जनता तो पिसती रहेगी ही,साथ  ही समाज  में तमाम सारी कानून और  व्यवस्था की समस्याएं इस असमानता के रहते पैदा होंगी जिससे समाज का हर तबका प्रभावित होगा.


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें