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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

आइए अपने गिरेबान में झाँककर देखें !

          समाज में जिन आदर्शों  और मूल्यों की हम बात करते हैं और जिन्होंने उसके लिए संघर्ष करने का स्वत: जिम्मा लिया है; जब वे आदर्श और मूल्य उन्हीं के द्वारा ध्वस्त किए जाते पाए जाते हैं और इसके उदाहरण एक-दो नहीं कई-कई सामने आते  हैं तो ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि समाज के स्वस्थ  होने में हमारी आस्था ही डिगने लगे और मन में यह प्रश्न उठने लगे कि क्या हम एक मिथ्याचारी ढोंगी समाज में जी रहे हैं . लोगों को आध्यात्म का रास्ता दिखाने का दावा करने वाला अनाचार में लिप्त पाया जाता है, भ्रष्टाचार  का  पर्दाफाश  करने वाला कदाचार का आरोपी पाया जाता है,महिला अधिकारों के लिए लडने की बात करने वाली संपादिका  अपने वरिष्ठ के कुकृत्यों  पर पर्दा डालने का प्रयास करती है,एक मंत्री और उसके  साहब पर  एक लडकी की निगरानी ए.टी.एस. से करवाने पर गुहार है, केंद्र  सरकार समेत देश की प्राय: सभी सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप समय-समय पर लगते रहते हैं.

          यदि  यह प्रश्न खडा किया जाए कि क्या एक अरब से ऊपर की आबादी वाले   इस देश में यह कृत्य एवं इनके कर्ता-धर्ता अपवाद हैं अथवा सामान्य  बात बन चुके  हैं तो नि:संदेह बडी संख्या में लोग सामान्य होने की ही पुष्टि करेंगे.कदाचार एवं भ्रष्टाचार की व्यापकता  तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों की इनमें संलिप्तता बीमारी का लक्षण मात्र है तथा समाज में इस रोग के व्याप्त होने की तरफ  संकेत करती है.  शरीर जब अस्वस्थ हो जाता है तो पूरा रक्त ही दूषित हो जाता है, भले ही अलग-अलग अंग स्वस्थ दिखाई देते हों.

          पिछले कुछ अर्से में जब अन्ना के समर्थन में बडी संख्या में जनता उठ खडी हुई,जब पिछले दिसंबर में दिल्ली में घटित बलात्कार कांड के विरोध में जनता सडकों पर उतर आई और जब लोगों  ने टू जी तथा कोलगेट जैसे  घोटालों और अपराधियों को राजनीति में बनाए रखने के प्रयासों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की तो एक उम्मीद बंधी कि  लोग भ्रष्ट व्यवस्था से ऊब चुके हैं तथा उसे बदलने के लिए आतुर हैं.

         पर,  साधारणतया हम सभी आदर्शवाद की बात करते तो हैं पर स्वयं  को उसके प्रति प्रतिबद्धता से अलग रखना चाहते हैं.यही कारण है कि  जिन्होने आदर्शों को स्थापित करने का बीडा उठाया था वे  ही उन्हें धराशाई करते हुए नजर  आ रहे हैं-" जिनसे है वफा की उम्मीद  वो नहीं जानते कि वफा क्या है."  आदर्शों  का बीडा तो  सबने  ही उठाया था.अन्ना का समर्थन सत्ता पक्ष को छोडकर सबने ही किया था.दिल्ली बलात्कार कांड के विरुद्ध आवाज  सबने ही उठाई थी,घोटालों का विरोध  सबने किया था, राजनीति में अपराधियों के प्रति  वितृष्णा भी  सबने व्यक्त की थी. फिर  भी हम आदर्शवाद के प्रतिमानों को  आज टूटते हुए क्यूँ देख रहे हैं? आदर्शों को स्थापित  करने के लिए और उन्हें ध्वस्त होने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम सभी अपने-अपने हृदय में झाँकें और वहाँ छिपे हुए राक्षसों को खत्म कर दें. यदि हम अपने गिरेबान में झाँक कर दिमाग में पल रही तथा हलचल मचा रही अवांछित  लालसाओं को, उनके  सर उठाने के पहले तथा इसके पहले कि वे हमारे आदर्शों पर  प्रहार करें, समाप्त नहीं करेंगे तो कोई  लोकपाल,कोई नेता अथवा कोई  व्यक्ति देश में अपेक्षित सुधार नहीं ला पाएगा और न ही जीवन में मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हो  पाएगी.

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