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शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सर्वव्याप्त हो रही विद्रूपता

         जुलाई के महीने में मेरे द्वारा  लिखे एक आलेख पर सुश्री कविता रावतजी ने  रहीमदासजी को उद्धृत करते हुए कहा था-" जिह्वा ऐसी बावरी कह गई सरग पताल।खुद तो कह भीतर भई जूती खाय कपाल्॥"

          11 नवंबर के दिन सी.बी.आई. द्वारा आयोजित संगोष्ठी के दौरान  "खेल-कूद में नैतिकता और  ईमानदारी"  पर हो रही परिचर्चा के दौरान सी.बी. आई. निदेशक ने बेटिंग को कानूनी जामा  पहनाने की  वकालत करते हुए  कहा कि  जब राज्यों द्वारा लाटरी का आयोजन किया जा रहा है, पर्यटनस्थलों में कैसीनो चलाए जा  रहे हैं और सरकार काले धन की स्वत: घोषणा हेतु माफी योजनाएं घोषित करती है तो बेटिंग को कानूनी स्वरूप देने में क्या हर्ज है. सी.बी.आई. निदेशक के यह अपने विचार हो सकते हैं और नि:संदेह उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत अपनी  राय व्यक्त करने का पूरा अधिकार है. पर अपनी बात की  विवेचना करते हुए उन्होंने आगे जो कुछ कहा वह ठेठ पुलिसिया अंदाज में था और शायद लोगों को मनोरंजक ढंग से अपनी बात बताने के चक्कर में वह यह भूल गए थे कि वे पुलिस वालों के बीच में नहीं बल्कि जनता के  विभिन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के बीच बैठे हैं. निश्चय ही एक सार्वजनिक मंच पर  उनका यह कहना हतप्रभ कर देने वाला था- क्या  हमारे पास एंफोर्समेंट एजेंसियाँ हैं? अगर हम एंफोर्स नहीं कर सकते हैं तो यह उसी तरह है जैसे यदि आप बलात्कार को रोक नहीं  सकते हैं तो उसका आनंद लीजिए.

          तमाम महिला संगठनों ने सी.बी. आई. निदेशक की  निंदा की है.कुछ ने उनके इस्तीफे की माँग की है  तो  कुछ ने आंदोलन चलाने और कुछ ने न्यायालय  का रुख करने का इरादा जताया है. निदेशक महोदय ने बार-बार  अपने कथन पर स्पष्टीकरण दिया है,खेद जताया है पर कोई सुनने को तैयार नहीं है. स्पष्टत: उनकी  गलती अक्षम्य है. महिलाओं   के खिलाफ अपराधों में पिछले कुछ अर्से में  दर्ज की गई बढोत्तरी और और इसके खिलाफ आई जागृति तथा पिछले वर्ष दिल्ली में चले आंदोलन तथा अन्य कई स्थानों पर भी ऐसे अपराधों के खिलाफ जनता के सडक पर उतर आने को देखते हुए देश के सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों में गिने जाने वाले सी.बी.आई. निदेशक को महिलाओं  के खिलाफ होने वाले अपराधों की गंभीरता का अहसास होना चाहिए था जो उनके द्वारा दिए गए उदाहरण के परिप्रेक्ष्य में लगता है कि उन्हें नहीं है.

          देश में विभिन्न सभाओं और रैलियों में सत्ता और विपक्ष दोनों ही तरफ के  अग्रणी पंक्ति के कुछ  नेताओं द्वारा दिए जा रहे भाषणों से लगता है कि जैसे लोक-जीवन में सामान्य शिष्टाचार के लिए भी कोई स्थान नहीं रह गया है. नेतागण शायद जनता को मनोरंजक तरीके से अपनी बात बताना चाहते हैं  पर उससे संबंधित उनकी समझ इतनी खोटी है कि उनकी कही हुई बातों को सुनकर उबकाई सी आने लगती है. आखिर आप किसी के प्रति गालियाँ भी कितनी सुन सकते हैं. उसकी भी एक सीमा होती है.  इसके बाद यदि अग्रणी पंक्ति के हमारे अफसरगण भी भाषाई संयम खोने लगते हैं  तो  किसी से भी क्या उम्मीद की जा सकती है. वैसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग यदि स्वयं सतर्क न रहें तो उनके लिए यह स्वाभाविक होता है क्योंकि उनके चारों तरफ बैठे हुए लोग प्राय:  चमचे की  श्रेणी के होते हैं, और जो  इस श्रेणी में नहीं होते हैं वे सच का अहसास कराने की हिम्मत नहीं करते या फिर ऐसा करना व्यर्थ समझते  हैं. मनोरंजन और  हास्य का स्वरूप विद्रूप होता जा रहा है जिसकी झलक टी.वी. पर आ रहे कई हास्य कार्यक्रमों में दिखाई दे  रही है.शायद इसी कारण यह विद्रूपता सर्वव्याप्त होती सी दिख रही है.

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