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शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

लाशों पे खडा कौन?

          बकौल किसी शायर के-
                                           तारीख की सफहों पे जो इंसान बडे हैं
                                           उनमें कितने ही हैं जो लाशों पे  खडे हैं

         तो साहब लाशों पर राजनीति का सिलसिला पुराना है  और मुजफ्फरनगर के दंगों के साथ ही यह सिलसिला शुरू हो गया है या यूँ कहें कि दंगों  का सिलसिला जो कुछ समय से बंद था फिर से शुरू हो गया है  और उसी के साथ शुरू हो गई है लाशों पर राजनीति.

         किसी एक और शायर ने कहा है-
                                                     एवज नींद के आँखों में अश्क आ जाएं साहब
                                                    ऐसा भी किसी शब सुनो अफसाना किसी का

         और मुझे यकीन है कि कोई भी इंसान जिसके सीने में दिल  जैसी कोई चीज है, अगर मुजफ्फरनगर के दंगों  में जो निर्ममता दिखाई गई है उसका हाल सुनेगा या पढेगा तो पसीजे बिना नहीं रह सकता. बेगुनाह बच्चों पर हमले किए गए ,उनके सामने ही उनके अपनों को कत्ल कर दिया गया,घरों को जला दिया गया, और तो और ,उस घर को भी नहीं छोडा गया जहाँ कोई दुलहन हाथों में मेंहदी सजाए अपने होने वाले दूल्हे की आने वाली बारात का इंतजार कर  रही थी.तमाम लोग अपने घरों को छोड कर भाग गए हैं,परिवार के लोग एक  दूसरे से जुदा हो गए  हैं.इस दंगे का  हाल सुन कर आजादी के ठीक  पहले होने वाले दंगों का स्मरण हो आता है.उस समय तो देश का बँटवारा हुआ था, सवाल उठता है कि अब  क्या होने वाला है.

         यह बात बेमानी है कि दंगों में जो मारा गया,जिसका घर जला ,जिसका अपना बिछुड गया वह हिंदू था या मुसलमान.उससे भी पहले वह एक इंसान और हिंदुस्तानी था,वह हिंदुस्तानी जिसके जान-माल की हिफाजत का वायदा कर हमारी प्रदेश और देश की सरकारें सत्तासीन हुई हैं निश्चय ही प्रदेश सरकार जिस पर कानून व्यवस्था की सीधी जिम्मेदारी थी इस कार्य में अक्षम साबित हुई है. 

         गत वर्ष फैजाबाद में दुर्गापूजा पर दंगे हुए थे,वह शहर जिसकी अमन की परंपरा पर वहाँ के बाशिंदे गर्व करते हैं और जहाँ दशहरे के मौके पर चौक की मस्जिद में बैठकर बचपन में मैंने तीन दिनों तक निकलने वाली झाँकियाँ देखी हैं और कभी किसी ने मुझे या अन्य किसी को कभी यह नहीं कहा कि तुम हिंदू होकर इस मस्जिद में कैसे आए.मुझे बाद में यह जानकर दुख हुआ कि उस मस्जिद में तोड-फोड  की गई.मेरे एक मित्र ने बताया कि कोई प्रोवोकेशन न होते हुए भी ऐसा हुआ और पुलिस मूक दर्शक बनी रही.जब मैंने अपने मित्र से कहा कि समाजवादी पार्टी की सरकार होते हुए भी ऐसा कैसे हुआ तो उसने कहा कि इसके पीछे वही  हैं जिन्हें जनता के ध्रुवीकरण से लाभ होने की उम्मीद है.

         जो दंगों का शिकार हुए हैं उनके दिलो-दिमाग पर  शायद लंबे समय तक दाग रहेगा.उनकी नजर  में भी दंगाई ,दंगाई न होकर हिंदू या  मुसलमान है.जो दंगों से महफूज बच गए हैं  उनका भी यही खयाल है कि नुकसान इंसानों का न होकर हिंदू का हुआ है या फिर मुसलमान  का हुआ है.नफरत के यह बीज जो अंकुरित हो गए हैं उन्हे देखकर कुछ लोग वैसे ही प्रसन्न हो रहे हैं जैसे किसान को अपने खेत में कोपलें फूटते देखकर होता है.वे खाद -पानी देकर जल्दी ही इसे हरा-भरा वृक्ष बना देने की लालसा पाल रहे हैं.

         लाशों पर खडे लोगों की बाछें खिली हुई हैं.  कुछ दलों को उम्मीद है कि मुसलमान अब समाजवादी पार्टी का दामन  छोडकर उसके खेमे में आ जाएंगे  तो कुछ को उम्मीद है कि हिंदुओं के  वोट अब जात-पाँत को भूलकर थोकबंद  उनकी झोली में आ गिरेंगे.समाजवादी  इसी सोच में हैं कि दाँव उल्टा कैसे पड गया.

          यह दंगे हमारे सामने सवाल खडा करते हैं कि क्या एक लडकी के साथ छेडखानी के लिए और फिर दो लडकों की मौत के लिए  पूरे के पूरे समुदाय  जिम्मेदार हैं और यदि ऐसा है तो इसके लिए हिंदू कौम नहीं या मुसलमान कौम नहीं बल्कि पूरी की पूरी हिंदुस्तानी कौम जिम्मेदार है.

चलते-चलते

          देश में राजीव गाँधी से लेकर अब तक जितनी भी बाबा लोग सरकारें बनी हैं उनके काम-काज को देखते हुए लगता है  कि  लोगों को बाबा लोगों से उम्मीद रखना छोड देना  चाहिए चाहे वे उमर फार्रूक हों या फिर अखिलेश यादव.

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