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बुधवार, 31 जुलाई 2013

ईमान की आँच!

          ईमान की आँच बडी तेज होती है.जिसके साथ  ईमान रहता है वह तो सुशांत दिखता है -प्रफुल्लित,संतोष से भरा हुआ. पर जिनके पास ईमान का कवच नहीं  होता, उन्हें उस सुशांत  चेहरे से इतना तेज निकलता दिखाई  देता है कि वे उसकी आँच में झुलसने लगते हैं.जब वे झुलसने लगते हैं तो उस सुशांत, संतुष्ट ,प्रफुल्लित   चेहरे को भी अपने  जैसा बना देना  चाहते हैं.उस पर हर  तरह से आक्रमण करते हैं .देखिए न, नवनियुक्त आई.ए.एस.अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल और उत्तर प्रदेश के शासन  को. दुर्गाशक्ति ने बालू माफियाओं को  टक्कर  देने का बीडा उठाया था. बालू माफिया ने उसे पहले प्रलोभन  देने और फिर डराने-धमकाने की कोशिशें  कीं. पर दुर्गाशक्ति ने किसी धमकी की परवाह नहीं की और दृढतापूर्वक ईमानदारी के  साथ अपना कर्तव्य करती गई.आखिरकार उसकी आँच उत्तरप्रदेश के प्रशासनिक केंद्रबिंदु तक पहुँच गई. और, जब इस केंद्रबिंदु पर उसकी आँच भारी पडने लगी तो  ईमानदार व्यक्ति   के ऊपर लगाने के लिए आरोप  खोज निकाला गया-एक अवैध धार्मिक निर्माण को  ढहा देने का और उसे मुअत्तल कर दिया गया.इस प्रकार प्रशासनिक केंद्रबिंदु ने तीन संदेश देने की कोशिश की है-
          1. प्रशासन में लगे हुए सभी अधिकारी हमारे राजनीतिक हितों का और हमारे सरमाएदारों का ख्याल                   रखें,जो इससे हटा उसकी खैर नहीं.
         2. राजनीतिक  आकाओं और उनके पिट्ठुओं के हित सर्वोपरि हैं,उनकी अनदेखी कर कर्तव्यनिष्ठा और                  ईमानदारी की परवाह करने की  कोई जरूरत नहीं.
         3.धार्मिकस्थल से जुडे निर्माण को, भले ही वह अवैध था, ढहाने का आरोप लगाकर इसके साथ-साथ एक             धार्मिक समुदाय को भी  साधने की कोशिश कर ली गई है.हिंदुस्तान में धर्म एक ऐसा नुस्खा  है                         जिसकी आड में आप कुछ भी अवैध कर उसे वैध बनाने का प्रयास  कर सकते हैं.

         ईमानदारी की राह कठिन है दुर्गा!इसमें पग-पग पर अग्निपरीक्षाएं हैं.तुम्हारे ईमान की मार जिसे लगेगी वह  इससे ऐसा तिलमिलाएगा कि तुम पर तुरंत प्रहार करने को  उद्यत होगा.पर सीता ने तो जीवन भर अग्निपरीक्षा दी थी,तुमने तो अभी पहली ही दी है.फिर तुम तो सीता नहीं दुर्गाशक्ति हो!इन असुरों से घबराना नहीं दुर्गा!बडे जनों की  -"जरा दुनिया  देखकर चलना चाहिए" -जैसी सीखों को सुनकर व्यथित नहीं होना.ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति की सबसे बडी पूँजी उसका अपना संतोष होता  है.जब वह पीछे की तरफ नजर डालता है तो पीछे का साफ-सुथरा रास्ता जो उसने अब तक तय किया  है उसके मन को आहलाद से भर देता है. अब तक  किया गया संघर्ष उसके मन को गर्व से भर  देता है. उसके उसूल उसका सबसे बडा संबल होते हैं.चोरों और बे‌ईमानों को जब मालूम हो जाता है कि यह आदमी बिकाऊ नहीं है तो वे संभलकर चलने लगते हैं और तुम्हारे सामने खडे होने का साहस भी नहीं कर सकते हैं.गुलाब की बगिया लगाने  पर रास्ते में  काँटे भी आते हैं, संभलकर  चलना पडता है, कभी-कभी  काँटों को बीन कर अलग भी करना पडता है,हाथ लहुलुहान हो जाते हैं.पर जब बीडा उठाया है तो गुलाब खिलाकर रहना.दूसरों के लिए वह आइना  बनना जिसमें उन्हें सच्चाई की सूरत नजर आए और वे खुद  को भी बदलने पर मजबूर हो  जाएं.हमारे समाज को ऐसे आइनों की बहुत जरूरत है.दुर्गाशक्ति! तुम्हारे ऐसे लोग ही इस समाज के लिए उम्मीद की किरण हैं.यह किरण  सिर्फ सितारा नहीं, चाँद नहीं,सूरज बन कर चमकनी चाहिए.

सोमवार, 29 जुलाई 2013

टंच,चक्कू और छप्पन छूरी! (व्यंग्य /Satire)

          दिग्विजय सिंह की टंच माल संबंधी टिप्पणी पढ कर बहुत पहले कहीं पढी एक घटना  याद  आ गई है.सुप्रसिद्ध रूसी हिंदी  विद्वान चेलिशेव उन दिनों प्रयाग- प्रवास कर अपनी हिंदी को पुख्ता करने का प्रयास कर रहे थे.उनके  पास एक डायरी और कलम सदैव रहती थी और वे जब भी कोई नया हिंदी शब्द या वाक्यांश सुनते जो  उनकी समझ से परे होता तो उसे अपनी डायरी में नोट कर लेते और किसी साथी विद्वान से मिल कर उसका अर्थ पूछते. एक दिन वे किसी पान की दूकान के पास से गुजर रहे थे तभी खूब सजी- धजी सी नवयौवना जाती हुई दिखाई दी. जब वह  पान की दूकान के बगल से निकलने लगी वहाँ खडा कोई मनचला जोर  से चिल्लाया-"जियो राजा चक्कू"!चेलिशेव के लिए जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद हिंदी का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने में लगे हुए थे,यह  वाक्यांश बिल्कुल नया था जिसका अर्थ वे नही समझ सके.उन्होने उसे  अपनी डायरी में नोट कर लिया.इसके बाद उन्होने कुछ विद्वानों से उसका तात्पर्य पूछा पर उनके द्वारा बताए गए  उत्तर भी घुमावदार थे   जिनसे चेलिशेव संतुष्ट नहीं हो पाए.किसी ने चेलिशेव को अर्थ समझने के लिए फिराक गोरखपुरी के पास भेज दिया .फिराक ने चेलिशेव को अर्थ तो  समझा दिया पर उस अर्थ को सुनकर चेलिशेव बेचारे शर्म से लाल हो गए.

          दिग्विजय सिंह की टिप्पणी के बाद लगता है हमारे नेतागण जल्दी ही लोगों के गुणों का बखान करने  के लिए 'चक्कू'और 'छप्पन छूरी' जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल करेंगे जिन्हें सुनकर चेलिशेव सदृश विदेशी हिंदी विद्वानों को लगेगा कि उनका हिंदी का ज्ञान अधकचरा है और वे दोबारा अपना हिंदी ज्ञान ठीक करने के लिए भारतवर्ष की  यात्रा  करने के लिए मजबूर हो जाएंगे.फिराक गोरखपुरी तो अब रहे नहीं, इसलिए इन विदेशी विद्वानों को इनका ठीक अर्थ समझने के लिए दिग्गी राजा के पास ही जाना पडेगा जो कन्टेक्स्ट को देखते हुए शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करने तथा उनका अर्थ समझाने में इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि लोग कंटेक्स्ट को देखते हुए 'टंच माल' बनने और कहलाने के लिए भी बिना किसी एतराज के राजी  हैं .

           हमारे नेताओं की भाषा देखकर लगता है कि आम  जनता का ही कंटेक्स्ट सही नहीं है और वह नाहक ही महिलाओं के साथ होने वाले अभद्र व्यवहार,अपराध और ज्यादतियों को लेकर हल्ला-गुल्ला मचाती रहती है.आखिर इस तरह की घटनाएं उनके द्वारा बताए गए कंटेक्स्ट का ही विस्तार हैं.विदेशी भले ही हमारी भाषा सुनकर शर्माएं और शर्म से लाल  हो जाएं ;पर हम  काले हैं तो क्या हुआ  दिलवाले तो हैं का गान करते हुए सही कंटेक्स्ट में चीजों को समझने की और उनकी व्याख्या करने की कोशिश में लगे रहेंगे.चलिए  हम सब अपने-अपने शब्दकोष अपने ढंग से बनाने और शब्दों के अर्थ अपने कंटेक्स्ट के हिसाब से निकालने और हिंदी के शब्द-भंडार को समृद्ध बनाने में लग जाएं.


रविवार, 28 जुलाई 2013

हिंदू राष्ट्रवादी या राष्ट्रवादी हिंदू या फिर सिर्फ राष्ट्रवादी!

          नरेंद्र मोदी ने लंदन की एक न्यूज एजेंसी को दिए गए अपने साक्षात्कार में स्वयं को हिंदू राष्ट्रवादी बताकर एक बार फिर एक और बहस को जन्म दिया है.उनकी व्याख्या यह है कि उनका जन्म एक हिंदू के तौर पर हुआ है और वे एक राष्ट्रवादी हैं इसलिए वे एक हिंदू राष्ट्रवादी हैं.इस व्याख्या के अनुसार फिर हमारे देश में निरीश्वरवादियों को छोडकर और कोई  मात्र राष्ट्रवादी नहीं है बल्कि वह हिंदू राष्ट्रवादी , मुस्लिम राष्ट्रवादी , क्रिश्चियन राष्ट्रवादी,सिख राष्ट्रवादी , बौद्ध राष्ट्रवादी, यहूदी राष्ट्रवादी अथवा पारसी राष्ट्रवादी है.राजनाथ सिंह जी ने इसका समर्थन भी कर दिया है.इस परिभाषा के अनुसार अशफाक उल्लाह खान और मौलाना अबुल कलाम आजाद मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी. जे. कलाम साहब भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.परमवीरचक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.और तो और, बी.जे.पी. के नेतागण शाहनवाज हुसैन और नकवीजी भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.ये बात दीगर है कि इनमें से किसी ने भी स्वयं  को इस रूप में परिभाषित नहीं किया है और यदि मेरी धारणा गलत नहीं है तो स्वयं को इस रूप में परिभाषित करना पसंद भी नहीं करेंगे.सवाल यह यह है कि यदि हम इस परिभाषा को स्वीकार कर लें तो यदि कुछ इतिहासकार मुस्लिम राष्ट्र की माँग करने के कारण जिन्ना को मुस्लिम राष्ट्रवादी(मुस्लिम राष्ट्र का पक्षधर) कहते हैं और मौलाना अबुल कलाम आजाद को इस माँग का विरोध करने और एकीकृत, अखंड भारत का पक्षधर होने के कारण राष्ट्रवादी मुस्लिम बताते हैं तो क्या वे गलत हैं? और, इतिहासकारों   की  इस परिभाषा के अनुसार यदि नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय हितों को अन्य हितों से ऊपर रखते हैं तो वे राष्ट्रवादी हिंदू हो सकते हैं ,हिंदू राष्ट्रवादी नहीं.स्वयं को हिंदू राष्ट्रवादी कहने पर वे जिन्ना के समानांतर दूसरे खाँचे में फिट हो जाते हैं.

          बेहतर हो कि हम हिंदू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी होते हुए भी राष्ट्रवादी हों.यदि हम अपने राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि समझते और रखते  हैं और उनके लिए अपने व्यक्तिगत हितों को बलिदान कर सकते हैं तो हम राष्ट्रवादी हैं;राष्ट्रवाद या  राष्ट्रवादी के साथ कोई विशेषण लगाने की जरूरत नहीं है. अन्यथा ;इसी तर्ज पर कल को जब लोग काश्मीरी राष्ट्रवादी,सिख राष्ट्रवादी, नागा राष्ट्रवादी,मिजो राष्ट्रवादी और तमिल राष्ट्रवादी होने का दावा करने लगेंगे तो राजनाथ सिंह जी की प्रतिक्रिया क्या होगी?तब भी क्या वे राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी के साथ इन विशेषणों के संयुक्त होने को औचित्यपूर्ण बताएंगे?  

बुधवार, 17 जुलाई 2013

अब तौ जीभ भई गजब कटारी!

            पिछले कुछ दिनों से  चल रही अखाडे वाली शैली की राजनीतिक बयानबाजी देखकर लगता है कि यदि गोस्वामीजी आज के युग में होते तो उन्हें कहना पडता-"देखि दसनन्हि  सोझाई  होऊँ  बलिहारी।अब तौ जीभ भई गजब कटारी॥" गोस्वामी तुलसीदासजी ने  विभीषण की रावण के साथ रहने की बेचारगी की तुलना विभीषण-हनुमान संवाद के माध्यम से दाँतों के मध्य जीभ के रहने से की थी-"सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।" इसी से कुछ आगे गोस्वामीजी एक चौपाई में विभीषण से कहलवाते हैं-"अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥" आगे हनुमानजी विभीषण से अपने विषय में कहते हैं-"कहहु कवन मैं परम कुलीना।कपि चंचल सबहिं बिधि हीना॥ प्रात लेई जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥ " एक तीनों लोकों के विजेता और देवों से भी गुलामी करवाने वाले लंकेश का भाई और दूसरा भगवान के अवतार समझे जाने वाले श्रीराम का दूत जिनकी आज तमाम  जन उपासना करते हैं. पर दोनों किस विनम्र भाव से एक दूसरे से मिलते हैं;किस मुलायमियत से एक दूसरे से बात करते हैं.पर हम हिंदू धर्म के अनुयाई होने का दावा करते हुए भी अपने धर्मग्रंथों  से भी कुछ नही सीखते हैं;लगता है शायद हरिकृपा का अभाव है.

          नरेंद्रभाई मोदी बहुत परिश्रमी व्यक्ति हैं, जवाहरलालजी की तरह दिन में अट्ठारह घंटे काम करने वाले.ईमानदार हैं. आर्थिक नीति सबंधी उनके विचार और भविष्य की योजनाएं पानी की तरह साफ और स्पष्ट हैं.जनता को भी एक विकल्प की तलाश है.पर उन्हे यह सोचना चाहिए कि जब वे कुत्ते के पिल्ले और बुर्के जैसे उपमानों का प्रयोग करते हैं तो उनके माध्यम से क्या संदेश जाता है.इन शब्दों के प्रयोग से भाषणों के दौरान तालियाँ जरूर मिलती हैं,जो वक्ता को पुन: ऐसे शब्दों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती हैं पर आगे यदि इसी क्रम में मौलाना ,मियाँ,पायजामा जैसे शब्दों का प्रयोग होता  है तो वे उनके विरोधियों की धारणाओं को न्यूट्रल जनसामान्य में  पुख्ता करने का ही काम करेंगे.आज बी जे पी में मोदी को राजधर्म की याद दिलाने वाला कोई बाजपेयी नही है;फिर भी जय-जयकार करने वालों की भीड  के बीच में यशवंत सिन्हा ने उन्हे  कुछ नेक सलाह दी  है जिस पर ध्यान देना उनके लिए अच्छा होगा.आज वे सिर्फ गुजरात के परिप्रेक्ष्य में राजनीति नहीं कर रहे  हैं बल्कि उन्होने भारत माँ की सेवा करने की और उसका कर्ज उतारने की इच्छा व्यक्त की है. तो आज फिर उन्हें  बाजपेयी के शब्दों को याद करते हुए भारत माँ के सभी बच्चों को अपना भाई-बहन समझते हुए उनकी संवेदनाओं को ध्यान  में रखना होगा. मोदी, आडवाणी की रथयात्रा के कर्णधारों में से एक थे.इसलिए उन्हें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि अपनी सारी मेहनत के बावजूद हॉक की छवि रखने वाले आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे और बी जे पी को  सर्वस्वीकार्य बाजपेयी को ही प्रधानमंत्री  बनाना पडा था.इसलिए यदि वे इस देश के मुख्य कार्यकारी के पद को सुशोभित करना चाहते हैं तो उसके लिए अधिक से अधिक वर्गों में स्वीकार्यता एक अनिवार्य शर्त है .अन्यथा या तो जनता फिर कुशासन  को ही झेलने को मजबूर रहेगी अथवा मोदी की मेहनत का फल कोई और खाएगा.अपनी स्वीकार्यता बढाने के लिए मायावती एक उदाहरण हैं जिन्होने"तिलक,तराजू और तलवार........." के नारे को छोडकर गणेशवंदना शुरू कर दी और अपने बूते बसपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में लाने में सफल रहीं.

          मोदी अपनी तुलना शायद दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी से जबानी जमा खर्च के मामले में करवाना पसंद नही करेंगे जिनकी साख उस तरह दाँव पर नहीं  लगी हुई है जिस तरह मोदी की.इसलिए यह दो व्यक्ति जो चाहे बोलें- चाहे बच्चा -बच्चा  राम का  नया नारा दें का या फिर पाँच रुपए की व्याख्या करें.उन्हें उनके हाल पर छोड देना चाहिए.

चलते-चलते:-     शायद पच्चीस वर्ष पहले की बात होगी,मैं रेलगाडी द्वारा कानपुर से लखनऊ आ रहा था.कांनपुर से ही तीन महिलाएं भी चढीं जिन्होने बुरके पहन रखे थे,उनके चेहरे  खुले हुए थे. उनके साथ एक पुरुष भी था.ये महिलाएं मेरे बगल में ही बैठ गईं.मेरे ठीक बगल में बैठी हुई महिला की उम्र यही कोई पचास वर्ष  रही होगी.रास्ते में किसी जगह उनके बुरके का एक सिरा उलट गया तो मैंने देखा कि उस पर लगा हुआ लेबल करांची का था.मुझे लगा कि ये लोग पाकिस्तान से हिंदुस्तान की यात्रा पर आए हैं.अत: मैंने कुछ बात शुरू करने और पाकिस्तान  के हालात के बारे में जानने की गरज से उन महिला से प्रश्न किया-"आप लोग पाकिस्तान से आए हैं?"
 महिला ने मुस्करा कर जवाब दिया -"नहीं ,हम यहीं के हैं".
"आपके बुरके का लेबल करांची का है,इसलिए मैंने सोचा कि आप लोग पाकिस्तान से आए हैं",मैंने कहा.
"बुरका पाकिस्तान का है, पर हम  हिंदुस्तान के हैं",महिला बोली.
अब उनके साथ का पुरुष बोला-"बात वही है कि -सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी".इस पर वहाँ बैठे हम सबके सब जन मुस्कुरा उठे.

बुधवार, 10 जुलाई 2013

कहानी (सियासी) - 3 : इंटेलीजेंस एजेंसियाँ बनाम देश की सुरक्षा

                इन  दिनों आई.बी. और सी.बी.आई. के बीच जिस तरह की उठा-पटक चल रही है उससे ऐसा लगता  है कि सुजॅय घोष यदि उससे प्रेरणा लें तो  जल्दी ही कहानी-3 का निर्माण करने में सफल होंगे. सुजॅय घोष ने एक वर्ष पूर्व कहानी नाम की छोटे बजट की फिल्म का निर्माण किया था जिसमें नामी-गिरामी कलाकार के रूप  में एकमात्र विद्या बालन थीं. फिल्म में अन्य भूमिकाएं नए कलाकारों या टालीवुड के बांगला फिल्मों में काम  करने वाले कलाकारों द्वारा निभाई गईं थीं. इस फिल्म की सफलता से उत्साहित होकर सुजॅय घोष द्वारा कहानी-2  का  निर्माण  किया  जा  रहा है.

       हिंदू नायक और मुस्लिम नायिका को केंद्र बिंदु में रखकर  फिल्म बनाना हमारे फिल्म निर्माताओं का  प्रिय विषय रहा है. जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लै के पिता का कहना है कि मेरे बेटे का दोष सिर्फ इतना है कि  उसने एक  मुस्लिम लडकी से प्यार किया था और प्यार की  खातिर उसने धर्म-परिवर्तन कर लिया था. दूसरी  जो बात उन्होने कुछ दिन पहले कही वह  यह  कि  उनका बेटा एक पुलिस इन्फॉर्मर था तथा वह किसी पुलिस अधिकारी का बहुत करीबी था जिससे उसे आशा थी कि वह उसे व्यवसाय आरंभ करने में मदद  करेगा. यह पढकर स्वत: कहानी फिल्म के इंटेलीजेंस अधिकारी खान का यह कथन याद आ जाता है – मिलन दामजी हमारा आदमी था,वह हमारे लिए काम करता था. बाद में वह हमारे दुश्मनों से मिल गया और उनके लिए काम  करने लगा,ऐसा कभी-कभी हो जाता है मिसेज बागची! कहानी में यह भी दर्शाया गया था कि इंटेलीजेंस के कुछ उच्चाधिकारी ही दुश्मनों से मिले हुए हैं. कहानी फिल्म देखने के बाद यह तथ्यों से परे और लेखक/निर्देशक की कल्पना  की उडान मात्र लगा था पर अब लगता है कि ऐसा हकीकत में भी हो सकता है.गृह मंत्रालय के पूर्व अधिकारी मणि का कहना मात्र यही नहीं है कि सी.बी.आई. ने जबरन उनसे एक बयान पर दस्तखत करवाए बल्कि उनके अनुसार एक सी बी आई अधिकारी ने यहाँ तक कहा कि संसद पर हमला तथा मुंबई में समुद्र के रास्ते आतंकवादियों का आकर हमला करना तत्कालीन सरकारों द्वारा प्रायोजित थे.

       सियासी खेल की यह कहानी-3 देश की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में गंभीर सवाल खडे करती  है. पुलिस इससे पहले भी ऐसे एन्काउंटर करती रही है जिनकी वास्तविकता पर संदेह प्रकट किया गया है या रहा  है. इनका शिकार कई बार शातिर अपराधी तो कभी-कभी निर्दोष जन भी हुए हैं. पर इस तरह के मामले में शामिल होने के लिए खुले तौर पर आई.बी. का नाम पहली बार आ रहा है. अगर आई बी निर्दोष लोगों को एनकाउंटर  का शिकार बनाने में शामिल थी तो उसके पीछे क्या झूठी वाह-वाही पाने की, या फिर और कौन सी मंशा थी  और अगर जो मारे गए वे सचमुच आतंकवादी थे या उनके खेल में शामिल थे जैसा कि आई.बी. का कहना है और इसकी पुष्टि में रिचर्ड हैडली की स्वीकारोक्ति है (या नही है) तो सच जो भी है उसे सामने क्यों नही लाया   जा रहा है. पंजाब में आतंकवाद के दमन के लिए के.पी.एस. गिल ने हर तरह के अस्त्र का प्रयोग किया था. उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया  गया. तब सरकार ने नहीं सोचा कि वह एक उदाहरण स्थापित कर रही है और आज उसके मानदंड अलग हो गए हैं. आई.बी. के चीफ आसिफ इब्राहिम सत्ता के उच्चतम स्तर तक  अपने  अधिकारी  को  बचाने  के  लिए  जा  चुके  हैं पर उसकी  सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर  पा रहे  हैं.

       पूर्व  गृह सचिव आर.के.सिंह के शब्दों  में जिस दिन देश की एक सुरक्षा एजेंसी दूसरी को कटघरे में खडा करेगी वह देश के  लिए  दुर्भाग्य  का दिन होगा. शायद  हम  उन्ही  दिनों के दौर से गुजर रहे हैं . सच  सियासत का  शिकार  है. ऐसे में सुजॅय घोष को कहानी-3 का निर्माण कर सच्चाई को सामने लाना चाहिए. 

       चलते-चलते :- सी.बी.आई.का कहना है कि किसी पुलिस वाले ने डी.आई.जी.बनजारा को सफेद दाढी और काली दाढी के बारे में बात करते सुना था.सुजॅय घोष यदि फिल्म बनाएं तो पटकथा को और रुचिकर बनाने के लिए इसमें एक खिचडी दाढी वाला आदमी भी जोड देना चाहिए.