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शनिवार, 25 मई 2013

दुश्चक्र ( संस्मरण पर आधारित एक बाल श्रमिक की कथा)

        बात सन  1995  की है .मेरी तैनाती उन दिनों अंबरनाथ (जो मुंबई का पुणे लाइन पर स्थित उपनगर है) में थी.शुरू में मुझे सरकारी आवास नहीं मिल पाया और मैं किराए पर एक फ्लैट लेकर उसमें रहने  लगा. कुछ समय के बाद मुझे सरकारी आवास आबंटित हो गया और मैं उसमें रहने के लिए आ गया.मेरा आवास एक काफी  बडा भवन था जो एक छोटी पहाडी या वहाँ की स्थानीय  भाषा के अनुसार टेकरी के ऊपर स्थित था.इसमें चार फ्लैट नीचे तथा चार ऊपर बनाए गए थे.मैं  नीचे सामने  पश्चिम की दिशा में स्थित फ्लैट में रहता था. भवन से निकलने वाली सडक के बगल में उपत्यका थी तथा सामने भी हरी-भरी पहाडियाँ दिखती थीं  जो संपूर्ण दृश्य को मनोरम बनाती थीं.सुबह उनके पीछे से निकलने वाला सूरज मन को आहलादित  कर देता था. एक तरफ की पहाडी पर बस्ती थी और उस पर रात में  रोशनियाँ टिमटिमाती थीं जो अच्छा समा उपस्थित करती थीं. बारिश के दिनों में चारों तरफ का दृश्य स्वर्ग सदृश सुंदर हो जाता था. मेरे पास एक सर्वेंट  क्वार्टर तथा गैरेज भी था.चूँकि मेरे पास गाडी आदि  नही थी अत: गैरेज का इस्तेमाल भी सर्वेंट क्वार्टर की तरह होने लगा तथा उसमें एक परिवार रहने  लगा जो बागवानी का काम कर देता था.कुछ दिनों के बाद एक परिवार सर्वेंट क्वार्टर में रहने की मंशा से आया. मेरे पडोसी बोलन साहब ने बताया कि वे पहले उनके सर्वेंट क्वार्टर  में रह  चुके थे तथा भले  लोग थे.अत: मैंने अपना  सर्वेंट क्वार्टर उन्हे दे दिया.

        मेरे घर में शुरू में  काम करने के लिए उस घर की गृहस्वामिनी अपनी एक छोटी बच्ची के साथ आई.कुछ दिनों के बाद उसने स्वयं आना  बंद कर दिया और केवल उस बच्ची को ही भेजना आरंभ कर  दिया.बच्ची की उम्र दस -ग्यारह वर्ष रही होगी.पर वह बडी तत्परता के साथ घर के सारे काम निपटा देती.उसने पाठशाला का मुँह भी नही देखा था तथा वह अपनी माँ के साथ अन्य कई  घरों में भी काम करने के लिए जाती थी.उसका नाम पिंकी  था.बच्ची बडी ही सुघड,विनम्र तथा स्वच्छताप्रिय थी. ढंग के कपडे पहन  लेने पर  कोई कह नहीं सकता  था कि वह किसी समृद्ध परिवार की नहीं है.  मेरी श्रीमतीजी ने बी.एड. में प्रवेश लिया तो पिंकी रसोई के काम में भी उनकी मदद करने लगी.जरूरत पडने पर वह रोटी भी बना देती.अपने स्वभाव,सेवाभाव तथा कर्तव्यपरायणता से बच्ची ने हम लोगों के दिल में घर कर लिया.मैने अपनी पत्नी से कहा कि तुम पिंकी को कुछ पढना-लिखना सिखाओ.पिंकी को कापी तथा पेंसिल आदि लाकर दे दी गई तथा घर का काम करने के बाद वह मेरी श्रीमतीजी से पढने लगी.जब उन्होने उसे हिंदी पढाना शुरू किया तो पिंकी  कहने लगी कि  मै अंग्रेजी  पढूँगी. अब  वह हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भी पढने लगी.कुछ दिनों तक तो पिंकी की पढाई ठीक-ठाक चली  फिर कभी उसकी कापी तो कभी पेंसिल गायब होने लगी. किसी दिन पिंकी न पढने के लिए कोई बहाना बना देती.एक समय के बाद मेरी श्रीमतीजी तंग आ गईं  और मुझसे बोलीं-पिंकी की पढने-लिखने में रुचि नही है,कभी कापी तो कभी  पेंसिल गायब कर देती है.धीरे-धीरे पिंकी की  पढाई बंद हो गई.

        एक दिवस रविवार था और मैं सुबह देर तक सोने के मूड में था .प्रात: दरवाजे की घंटी बजी .श्रीमतीजी संभवत: स्नानागार में थीं.अत: मुझे जाकर दरवाजा खोलना पडा.देखा तो पिंकी खडी थी .पिंकी घर के भीतर आ गई  और मैं पुन: सोने का उपक्रम करने लगा.तभी पिंकी मेरे पास आकर बोली-"अंकल-अंकल!"जब मैंने आँखें खोलीं तो पिंकी ने मेरी तरफ एक  सौ रूपए का नोट बढाया.मैं अचरज में पड गया और बोला-"ये क्या पिंकी?पिंकी हंस कर बोली-"अंकल,कडकी थी न घर में तब आंटी से ये रूपए लिए थे." मैंने रूपए ले लिए पर सोचने लगा -ये छोटी सी पिंकी अभी से कडकी जैसे शब्द से परिचित हो गई है.

        पिंकी हमारे परिवार का एक अनिवार्य हिस्सा सा बन गई थी.मेरे साले साहब अमेरिका से सपरिवार  मिलने आए  थे.वे पति-पत्नी दोनों ही व्यस्त प्रोफेशनल हैं.मेरी सलहज ने अमेरिका में दैनिक कामों में सहायता  के लिए  किसी के मिल पाने में होने वाली दिक्क्तों का जिक्र किया तो मैंने कहा -  आप पिंकी को स्पांसर कर  अपने साथ लेती जाइए. उन्होने मेरी श्रीमतीजी से  कहा-"पिंकी से पूछो  अमेरिका चलेगी?" जब श्रीमतीजी ने पूछा तो पिंकी ने मना कर दिया.दिन गुजरते गए और इस दौरान मुझे पुत्ररत्न की  प्राप्ति हुई .पिंकी बेटे की देख-भाल में भी सहायता करती.मेरा बेटा भी पिंकी  से हिल-मिल गया.जब उसने बोलना शुरू किया तो पिंकी को ताई (मराठी में दीदी को ताई  कहते हैं) कह कर पुकारना  शुरू कर दिया.पिंकी इस दौरान  बडी हो गई थी,इस  बात का अहसास उस दिन हुआ जब उसकी  माँ मेरे पास आकर बोली- "जब पिंकी काम करने आती  है तो इधर लडके आते हैं.हम इज्जत  वाले हैं तुम देखना बेटा!." मैंने पिंकी से पूछा -"पिंकी कौन लडका इधर आता है,तुम्हारी माँ कह रही थीं.अगर  कोई इधर आता है या तुम्हे तंग करता है तो मुझे बताओ." पिंकी कुछ नहीं बोली पर उस दिन  से घर में रहने पर अगर पिंकी घर में है तो  मैं उसकी तरफ ध्यान रखने लगा.घर की रसोई बिल्कुल पीछे की तरफ थी और वहाँ से एक दरवाजा बाहर की तरफ खुलता था  जिसके बाहर खाली जगह पडी थी .कुछ पेड आदि थे तथा काँटेदार तारों से घर की बाउँड्री बनाई गई  थी.पिंकी रसोई  में काम करते समय हवा आदि आने - जाने के लिए वह दरवाजा खोल लिया करती थी. एक दिन मैंने देखा   कि बाड के  दूसरी तरफ कुछ लडके खडे हैं.मैने डाँटा तो वे चले गए.उस दिन से पिंकी को हिम्मत आ गई.वह लडकों को डाँटकर भगाने लगी.एकाध पर लडकों को  खडा पाकर जब मैं उस तरफ गया तो  जिस ढंग से सीधी -साधी दिखने वाली पिंकी उन पर गरजी उससे मैं आश्चर्य में पड  गया.

         अंबरनाथ में ही मेरी बहन का विवाह स्थानीय रूप से तय हो गया .सुविधा को देखते हुए मैने वहीं से विवाह को संपन्न करने का  निश्चय किया.उस समय मेरे बहुत से बंधु-बांधव  तथा रिश्तेदार अंबरनाथ पधारे.पिंकी ने उन दिनों घर में बहुत काम किया.घर में आए हुए सभी लोग उसके सेवाभाव से बहुत अभिभूत हुए तथा उसे कुछ न कुछ देकर गए.

        उसके कुछ महीनों बाद की बात है ,जब मैं शाम को कार्यालय से घर आया तो श्रीमतीजी ने कहा कि सोनाबाई (वह महिला जो मेरे गैरेज में अपने परिवार के  साथ रहती थी तथा बागवानी का काम देखती थी ) आज पिंकी के बारे में कह   रही थी कि उसका सिद्धनाथ( जो मेरे  पडोसी प्रसादजी के सर्वेंट क्वार्टर में रहता था तथा उनके यहाँ काम करता था ) के साले के साथ लफडा (मुंबई में यह शब्द affair का पर्याय है) है ,जब वह उसे देखती है तो उसकी आँखों में चमक आ जाती है और जब भी वह सिद्धनाथ के घर  आता है पिंकी उसके साथ घंटों बातें करती है.श्रीमतीजी आगे बोलीं कि मैंने उसे डाँट दिया है और कहा है कि पिंकी के बारे में इस तरह की उल्टी-सीधी बातें  मत करना.

        खैर, कुछ दिनों के बाद पता चला कि सोनाबाई ने जो कुछ भी कहा था वह असलियत थी.पिंकी को बहुत समझाने-बुझाने की चेष्टा की गई पर वह सिद्धनाथ के साले से विवाह करने पर आमादा थी.सिद्धनाथ का साला माँ-बाप का अकेला लडका है तो क्या हुआ,निकम्मा है , आवारा है- आदि उसे बताया गया पर पिंकी पर कोई असर न  हुआ.सिद्धनाथ का साला अलग पिंकी के माँ-पिता को धमकाने लगा.सिद्धनाथ के सास-ससुर आकर कहने लगे कि उनका इकलौता लडका पिंकी के प्रेम में पागल हो गया है तथा कहीं कुछ कर न बैठे  इसलिए जल्द से जल्द पिंकी का विवाह उनके बेटे से कर दिया जाए.अंततोगत्वा तंग आकर पिंकी के माता-पिता ने उसका विवाह  सिद्धनाथ के साले के साथ कर दिया.

        एक दिन  मेरे ताऊजी आए.उन्होने पिंकी के न दिखाई देने पर उसके बारे में पूछा.मैने उन्हे सारी कहानी बताई.इस पर वे बोले-"पिंकी गरीबी के दुश्चक्र में थी और उससे बाहर निकलने के लिए उसने ऐसा किया."
शायद उनकी बात सही रही हो.पर पिंकी तो एक दुश्चक्र से निकल कर दूसरे दुश्चक्र में चली गई थी क्योंकि कुछ ही दिनों के बाद पिंकी के आवारा और निकम्मे पति द्वारा उसके साथ मार-पीट किए जाने की खबरें आने लगीं.

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